सूखा सावन जल को तरसे
रह-रह बरसे मन
पीउ-पीउ नित रटे पपीहा
लोप हो गए घन ।
पावस की मोती सी बूंदें
बन गईं चिन्गारी
हल की मूँठ बैल की घंटी
लगे थकी-हारी
सूरज की प्रतिशोध कहानी
मौन सुने कण-कण ।
बालक मेघा-मेघा कहकर
भू पर लोटें भीजें
मेघा निष्ठुर आएं-जाएं
किंतु न तनिक पसीजें
कृषक घरों में पोंछें आँसू
खेत हुए निर्जन ।
(26 जुलाई, 1991 को रचित)
रह-रह बरसे मन
पीउ-पीउ नित रटे पपीहा
लोप हो गए घन ।
पावस की मोती सी बूंदें
बन गईं चिन्गारी
हल की मूँठ बैल की घंटी
लगे थकी-हारी
सूरज की प्रतिशोध कहानी
मौन सुने कण-कण ।
बालक मेघा-मेघा कहकर
भू पर लोटें भीजें
मेघा निष्ठुर आएं-जाएं
किंतु न तनिक पसीजें
कृषक घरों में पोंछें आँसू
खेत हुए निर्जन ।
(26 जुलाई, 1991 को रचित)
No comments:
Post a Comment