कसम तुझे दीप की उजास !
बाहर से जगर-मगर
करता है देश,
आँगन में तम खेले
शैतानी रेस;
मत करना झूठा परिहास !
गरदन तक कर्ज चढ़ा
करते घृतपान,
सोते अपने से छोटी
चादर तान ;
बन गए कुबेर क्रीत दास !
कम्प्यूटर काम करें
सौ-सौ का साथ,
बेकारी भोग रहे
कितने ही हाथ ;
मत रखना बोनस की आस !
अबकी तो मार गए
भाजी के भाव,
दीवाली के संगी
बने बड़ा-पाव ।
लोकतंत्र आया न रास !
( 26 अक्तूबर, 1997 को रचित )
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