Wednesday, October 31, 2012

कसम तुझे दीप की उजास !


कसम तुझे दीप की उजास !

बाहर से जगर-मगर
करता है देश,
आँगन में तम खेले
शैतानी रेस;

मत करना झूठा परिहास !

गरदन तक कर्ज चढ़ा
करते घृतपान,
सोते अपने से छोटी
चादर तान ;

बन गए कुबेर क्रीत दास !

कम्प्यूटर काम करें
सौ-सौ का साथ,
बेकारी भोग रहे
कितने ही हाथ ;

मत रखना बोनस की आस !

अबकी तो मार गए
भाजी के भाव,
दीवाली के संगी
बने बड़ा-पाव ।

लोकतंत्र आया न रास !

( 26 अक्तूबर, 1997 को रचित ) 

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