Thursday, December 31, 2015

मरा कबूतर जीती चील

मरा कबूतर जीती चील।
जगह-जगह बिखरा बारूद
शहरों का मिट गया वज़ूद
मानवता की भव्य इमारत
देखो हुई नेस्तनाबूद
दिखे लहू की चहुँदिश झील।
बदला किससे कौन ले रहा
क्रूर सजाएं कौन दे रहा
कत्लगाह के सन्नाटे में
इसका उत्तर मौन दे रहा
देते सब खोखली दलील ।
बेगुनाह मारे जाएंगे
निशदिन संहारे जाएंगे
प्रथम प्रहर भी देख न पाए
बच्चे बेचारे जाएंगे
तभी शांति की होगी डील।
- ओमप्रकाश तिवारी

Thursday, October 22, 2015

अपने मन का रावण मारो

मार सको तो
धनुष उठाओ
अपने मन का
रावण मारो।

रहे पड़ोसी का
घर ऊँचा
तो मन अपना
बैठा जाए,
पैसे चार
हाथ आ जाएं
तो बेमतलब
ऐंठा जाए ;

ये प्रवृत्ति ही
ख़तरनाक है
अस्त्र उठा
इसको संहारो।

कभी न
बेटी जैसी दिखती
अपनी छोड़
परायी बेटी,
अब तो माँ की
पूज्य चरण रज
लेने में
होती है हेठी ;

संभव हो तो
ऐसे दुर्गुण
को सीधे
परलोक सिधारो।

चार सदस्यों
वाला घर है
संभल रहे न
अपने बच्चे,
चार जने हों
सुनने वाले
तो उपदेश
सुनाएं अच्छे ;

परनिंदा के
दुष्ट दैत्य की
नाभी में
अपना शर मारो।

- ओमप्रकाश तिवारी
( 2015 की विजयदशमी पर लिखा गया नवगीत) 

Sunday, October 18, 2015

कितना नीचे और गिरोगे ?

कितना नीचे और गिरोगे ?
च्च...च्च...च्च !
च्च...च्च...च्च !!

मर्यादा का ज्ञान रहा, न
रिश्तों का ही भान रहा
पापों के दुष्परिणामों का
न तुमको अनुमान रहा

ईश्वर से भी नहीं डरोगे ?
च्च...च्च...च्च !
च्च...च्च...च्च !!

मानवता को गोड़ रहे हो
कच्ची कलियाँ तोड़ रहे हो
तुम जैसे ही दुष्ट नराधम
इस समाज के कोढ़ रहे हो

कब तक सीताहरण करोगे ?
च्च...च्च...च्च !
च्च...च्च...च्च !!

रोज तुम्हें जाता है कोसा
किस पर दुनिया करे भरोसा
तुम जैसे कलि दैत्य रूप को
भला किसलिए जाए पोसा

सबकी नजरों में अखरोगे ।
च्च...च्च...च्च  !
च्च...च्च...च्च !!

- ओमप्रकाश तिवारी 

Tuesday, October 13, 2015

जब से घुसा गांव में वोट

दफन
हो गया भाईचारा
जब से घुसा गाँव में वोट।

सुख-दुख में थे
साथ पड़ोसी
रहा साथ ही जीना-मरना,
बेटे का
मुंडन-छेदन हो
या बेटी की शादी करना;

रहे सदा जो
साथ हमारे
नजर चुरा हो जाते ओट।

चौपालों का
रंग अजब था
गजब लगे चालीसा गान,
हरिया की
ढोलक पर गूँजे
आल्हा औ बिरहा की तान;

सब कुछ
अपने साथ ले गए
बाँट-बाँट कर नेता नोट ।

पाँच बरस में
एक इलेक्शन
बंद रोज की दुआ-सलाम,
कई मुकदमे
शुरू हो गए
जीवन भर की नींद हराम;

लोकतंत्र यूँ
घर में घुसकर
पहुँचा गया करारी चोट।

- ओमप्रकाश तिवारी 

Tuesday, October 6, 2015

सियासत छाई

लिट्टी-चोखा, दूध मलाई,
सब पर आज सियासत छाई।

आलू फिर इस बार खड़े हैं,
पहले भी छह बार लड़े हैं;
संगी-साथी आगे-पीछे,
जिन पर बहु आरोप जड़े हैं।

अभी-अभी पर्चा भर लौटी
दाल ले रही है अंगड़ाई।

थाली के बैंगन पर अबकी,
टिकी निगाहें दिखतीं सबकी;
जब भिंडी की जात साथ है,
जीत प्याज की समझो पक्की।

जिस सूरन की पूछ नहीं थी,
उसे कहें सब भाई-भाई।

टिंडा चढ़ा चुनावी रथ पर,
बढ़ता जाय विजय के पथ पर;
कद्दू के दल वाला झंडा,
लहराता है सबकी छत पर

ऐंठी बैठी अरवी बोले,
दो हिसाब सब पाई-पाई।

- ओमप्रकाश तिवारी 

Sunday, October 4, 2015

माँ तुम ऐसा रूप धरो


दुर्गे
दुर्गा शक्ति बनो तुम
मन बनना इंद्राणी।
बेशक, हम सबको भाती है
नई चेतना सारी,
नहीं चाहते आधी दुनिया
रहे सदा बेचारी ;
बनो
इंदिरा, विजयलक्ष्मी
या झाँसी की रानी ।
अष्टभुजी बहुशस्त्र सजी
कर रक्तिम खप्परवाली,
दानव के सीने पर हो पग
क्रोधमयी माँ काली ;
सनी लियोनी
जैसी प्रतिमा 
मत गढ़ना कल्याणी।
माँ तुम ऐसा रूप धरो
ना नजरें हों शर्मिंदा,
ध्वज भी तेरा फर-फर फहरे
मर्यादा हो जिंदा ;
श्रद्धा
उपजे, नहीं वासना में
डूबा हो प्राणी।
- ओमप्रकाश तिवारी

Saturday, July 4, 2015

एक प्रार्थना

ऊँ
....
एक प्रार्थना
................
हे प्रभू वह मति प्रसारो
सब करें कल्याण सबका।

करि कृपा सारे जगत को
दीजिए वह चेतना,
कर सकें महसूस हम सब
हर किसी की वेदना;
प्रेम का विस्तार हो
इस स्वार्थी संसार में,
दो मनुष्यों बीच
किंचित मात्र भी हो भेद ना।
हाथ इक – दूजे का थामे
साथ हो उत्थान सबका।
देश का शासन – प्रशासन
रहनुमा – नेता सभी,
बुद्धिजीवी-कवि-विचारक
और अध्येता सभी;
बुद्धि निर्मल हो सभी की
शुद्ध चिंतन में लगें,
मत भटकने दीजिए
इस वर्ग की नीयत कभी।
हों अहं से दूर सारे
सब करें सम्मान सबका।
याद हो आठों प्रहर
हर पल हमें कर्तव्य अपना,
फिर भले संघर्ष की
ज्वाला में क्यों ना पड़े तपना;
हम कमर कस कर खड़े हों
हौसला नभ को छुए,
राष्ट्र को स्वर्णिम बनाने का
करें हम पूर्ण सपना।
हर स्वचिंतन बीच हो प्रभु
देश पर भी ध्यान सबका।
- ओमप्रकाश तिवारी

Tuesday, June 30, 2015

गिरी बोरवेल में रेहाना


ऊँ
--
गिरी बोरवेल
में रेहाना !

गड्ढा है पतला व गहरा,
वहां नहीं था कोई पहरा;
खेल रही थी नन्हीं बच्ची
गई उसी गड्ढे में भहरा ।

है अपनी पूरी तैयारी
चार कैमरेवाली गाड़ी
टीवी छोड़
कहीं मत जाना !

सुस्ती पुलिस फोर्स पर छाई,
एनडीआरएफ देर से आई;
बोरिंग मालिक की कर दी है
ग्रामीणों ने खूब पिटाई।

अपनी भी कुछ है मजबूरी
अब सचमुच है बहुत जरूरी
कॉमर्शियल ब्रेक
दिखलाना !

दुआ निकालो दिल से सच्ची,
ख़तरे में है प्यारी बच्ची;
सिमपैथी में सेंध लगाना
बहुत बड़ी है माथापच्ची।

लगा रहे ग़र गिरना-पड़ना
बढ़ती दर्शकगण की गणना
चहिए खाली
एक बहाना !
- ओमप्रकाश तिवारी

Monday, June 22, 2015

पितृ दिवस

ऊँ
....
सुबह अचानक 
बेटे ने जब
छुए हमारे पावं।
नयन तरल हो उठे
द्रवित था हृदय
रुद्ध आवाज,
सोच रहा था
पश्चिम से क्यों
सूरज निकला आज;
मन में सोचा
खेल रहा है
पैसे के हित दावं।
ना होली-ना दीवाली
ना और
कोई त्यौहार,
जन्मदिवस
में बाकी इसके
अभी महीने चार;
फिर कैसे
इस जेठ दुपहरी
दिखी बादली छावं।
तभी चाय की
चुस्की के संग
जब पलटा अखबार,
'पितृ दिवस' की
कुछ ख़बरों से
नयन हुए दो-चार;
तब समझा
नवपीढ़ी की है
सही दिशा में नाव।
- ओमप्रकाश तिवारी

Friday, June 19, 2015

चाहें बेला फूल


जीवन भर हम
रहे रोपते
केवल वृक्ष बबूल,
प्रत्युत्तर में
तो भी चाहें
सुंदर बेला फूल।

पौ फटने से
रात ढले तक
निजता ही निजता,
सिर्फ स्वचिंतन
में ही जीवन
जाता है छिजता ;

अपने से
बाहर की दुनिया
जाते हैं हम भूल।

सदा अहं को
पाला-पोसा
ना छोड़ा अभिमान,
अपनी सुविधा
के आगे, ना रहा
और कुछ ध्यान ;

प्रतिफल में
एकाकीपन
यूँ चुभता जैसे शूल।

गहन ईर्ष्या
की ज्वाला से
जब-जब धधके मन,
जलें पड़ोसी बाद
सुलगता
पहले निज कण-कण ;

फिर भी
समझ नहीं पाते हम
अपने दुःख का मूल।

- ओमप्रकाश तिवारी

Sunday, April 26, 2015

क्यों न फटे धरा की छाती

क्यों न फटे धरा की छाती,
छलके सागर, गिरें पहाड़ ।
दुःशासन की भाँति
धरा की चीर खींचते
हम न लजाए,
वृक्ष बुजुर्गों ने
जो पोसेे
सारे हमने काट गिराए;
किस करनी पर प्रकृति करेगी
बोलो-बोलो हमसे लाड़ !
भूल गए हम
कृष्ण सखा संग
गोवर्द्धन पूजन की गाथा,
फैशन सा
बन गया रौंदना
रोज-रोज अब सागरमाथा;
मस्त हुआ जाता है मानुष
एवरेस्ट पर झंडे गाड़।
रोका नहीं
यहाँ भी हमने,
अपना विश्वविजय का घोड़ा,
बाँध दिए तटबंध
नदी को
जैसा चाहा, वैसा मोड़ा;
देखो-देखो हमने बीघों
रत्नाकर को दिया पछाड़।
- ओमप्रकाश तिवारी

Wednesday, April 1, 2015

मूर्ति फिर खंडित हुई

हो गई फिर
मूर्ति खंडित
आस्था से जो गढ़ी थी।
हम तो पहले से ही
ठगहारों के
मेले में खड़े थे,
स्वर्ग दिखलाने को
जीते जी
स्वयं तुम ही अड़े थे;
बात में भी
चाशनी की
इक परत मोटी चढ़ी थी।
तुम कुम्हारों
की कमी
दुनिया को समझाते रहे,
दूध चन्दन
के कटोरे
में ही गरमाते रहे;
काठ की हाँडी
बताओ
कब - कहाँ पहले चढ़ी थी।
समझते हैं खेल
कुछ जन
छोड़ना बातों का सोशा,
दुःख अपरिमित
किंतु देता
टूटता है जब भरोसा;
किन उमीदों
पर चढ़ाऊँ
जो लता पहले चढ़ी थी।
- ओमप्रकाश तिवारी

Thursday, March 12, 2015

योगमाया

योगमाया 
आज कंसों से
जरा बचकर दिखाओ !

कृष्ण की
लेकर जगह, उनको
तुम्हीं ने था बचाया,
वास्तव में 
धर्म भगिनी का
बखूबी था निभाया;

भ्रूणहंताओं के 
हाथों से भी
अब तुम पार पाओ ।

जानकी बन
दिवस कितने
कलश में तुमने बिताए,
गांधारी बन
कई जन्मों के 
कर्जे भी चुकाए;

अब जरा 
नौ माह, माँ के 
गर्भ में रहकर बताओ। 

था बहुत आसान
शायद
रक्तबीजों से निपटना,
बाँधकर शिशु पीठ
दोनों हाथ 
अंग्रेजों से लड़ना;

निर्दयी परिवार से
तुम लड़ सको
तो पुनः आओ। 

- ओमप्रकाश तिवारी

जिसका कुर्ता सबसे उज्जर ......

जिसका कुर्ता सबसे उज्जर
पोतो उसे घसीट कर ।
अँगनाई में पानी-पानी
भौजाई ने कीचड़ सानी
बूढ़ा बैठीं मुँह लटकाए
पर बुढ़ऊ में दिखे जवानी
लौंडे मुँह में रंग लगाए
थोड़ी-मोड़ी भंग चढ़ाए
खेल रहे हैं जमकर होली
चढ़े भैंस की पीठ पर ।
लगीं सुबह से अम्मा-काकी
कोई व्यंजन रहे न बाकी
घर वाले खाएं ना खाएं
देनी पड़ती बहुत खुराकी
हफ्ते भर से तैयारी है
गुंझिया-पापड़ की बारी है
आज सुबह से चढ़ी कड़ाही
पूड़ी छने अँगीठ पर ।
काका गाएं सरर कबीरा
सबके मुँह पर पोत अबीरा
दरवाजे पर गुड़ की भेली
उसके बाद पान का बीरा
बने जेठ भी सारे देवर
घूँघट भी दिखलाए तेवर
जब से होली जली रात को
देवी जी के डीठ पर ।
- ओमप्रकाश तिवारी

Wednesday, January 14, 2015

कांपती काया का घर

काँपती काया का घर
...........................
तीन मंजिल
आठ कमरे
कांपती काया का घर,
खेलते
डॉलर में बच्चे
और हम हैं दर-ब-दर।

बैंक में
बैलेंस काफी
पेंशन भी कम नहीं,
है दिया
भगवान का सब
सच में कोई गम नहीं ;

साथ रख
बचपन से पाला
बस उसी नौकर से डर ।

पार्क में
कटती सुबह
हमजोलियों के साथ में,
और दोपहरी
भी एलबम
संग पुरानी याद में ;

रात को
शंकित करे मन
गूँजता खुद का ही स्वर ।

दिन यहाँ होता
तो होती
रात है परदेस में,
प्यार-आदर-फ़िक्र
सिमटे
फ़ोन के संदेश में ;

कौन
इंटरनेट का सीखे
अब बुढ़ापे में हुनर ।

(15 जनवरी, 2015)

Tuesday, January 6, 2015

काश ! अंतस तक पहुंचती ......


---
काश !
अंतस तक पहुँचती
उष्मा तेरी किरण की।

क्या फ़रक पड़ता
रहो तुम
उत्तरायण-दक्षिणायण,
हाथ हो रोजी
सुबह की,
रात को रोटी नारायण ;

कामना
हमको नहीं है
भीष्म से पावन मरण की।

तुम मकर में जा रहे हो
तो हुआ
उत्सव हमारा,
हम मकड़जालों में उलझे
ढूंढते
अपना किनारा ;

स्वयं सारे
वस्त्र खोकर
चाह रखते आवरण की।

देव तुम जानो
तुम्हारी गति-दिशा
आवागमन,
चाहते हम सिर्फ
अपनी मति मलिनता
का शमन ;

रुक सके तो
रोक दो गति
आचरण के ही क्षरण की।
- ओमप्रकाश तिवारी