Wednesday, October 31, 2012

झिलमिलाते दीप



झिलमिलाते दीप देखो
लग रहे कितने सलोने ।

कार्तिक की प्रात भीगी
दूब जैसे ओस से,
तैल मदिरा पी लहरते
हैं हुए मदहोश से;

आज ये ही बन गए हैं
बाल टोली के खिलौने ।

दीप्ति रवि की हैं चुराए
दिये माटी-धूर के,
देखते तूफान को भी 
साहसी ये घूर के;

पंक्ति-पंक्ति उजास बिखरी
दीखते नभ नखत बौने ।

रात है काली अमावस की
सुमेरु सी बनी,
झोपड़ी के द्वार दीपक
लग रहे संजीवनी;

प्रगति युग में भी ये थाती
आस्था की चले ढोने ।

( 18 अक्तूबर, 1990 को दीवाली की रात लखनऊ से फैजाबाद जाते हुए ) 

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