Sunday, August 26, 2018

विकास

बना गाँव में रोड
रोड ने
कैसा अजब विकास किया !

खेत गए जिस-जिसके उसको
रुपए कई करोड़ मिले,
अब घर-घर में कार, और
मोटरसाइकिल की होड़ मिले;
पहले थी चौपाल, बुजुर्गों का
अड्डा-हुक्का-पानी,
अब जमती फड़ ताश-जुए की
रिश्ते-नाते गौड़ मिलें;

चौराहे पर आ
'ठेके' ने
सबकुछ सत्यानाश किया।

एक कुआँ था, जिसपर लगती
देखी चरखी की बारी,
बिना कहे हर व्यक्ति निभाता था
आकर अपनी बारी;
चना-चबैना-चटनी-सिखरन
की मचती थी लूट वहाँ,
गुड़ से भी मीठी लगती थी
बड़के बाबा की गारी;

ट्यूबवेल ने
सहकार खत्म कर
धरती का भी नाश किया।

खंभे गड़े गाँव में आकर
तो सबने खाए लड्डू,
अब तो जब तक रहती बिजली
दिन में भी जलते लट्टू;
बिजली आई, टीवी आया
शुरू बहस का दौर हुआ,
आग लगाकर मजा लूटते
हैं अब भाड़े के टट्टू;

आए मियाँ 'विकास'
मगर भाईचारे का
ह्रास किया।

- ओमप्रकाश तिवारी

(26 अगस्त, 2018) 

परती खेत

अबकी गांव गया तो
फैले देखे
परती खेत।
दूर-दूर तक मंजर दिखता
जैसे चारागाह,
दरवाजे पर बूढ़े दादा
भरते ठंढी आह;
सोच रहे
पुरखों की धरती
हो ना जाए रेत।
बड़का छोड़ जमींदारी
है बन बैठा दरवान,
छुटका धनादेश की मस्ती
में भूला पहचान;
फाल बिना हल
करमन रोए, औ
कुदाल बिन बेंट।
सावन-भादों बीता जाए
कहीं न दिखता धान,
दाने-दाने को तरसेगा
अबकी तो खलिहान;
सोचो-सोचो
दुनिया कैसे
भर पाएगी पेट।
- ओमप्रकाश तिवारी
(23 जुलाई, 2018)