Sunday, April 26, 2015

क्यों न फटे धरा की छाती

क्यों न फटे धरा की छाती,
छलके सागर, गिरें पहाड़ ।
दुःशासन की भाँति
धरा की चीर खींचते
हम न लजाए,
वृक्ष बुजुर्गों ने
जो पोसेे
सारे हमने काट गिराए;
किस करनी पर प्रकृति करेगी
बोलो-बोलो हमसे लाड़ !
भूल गए हम
कृष्ण सखा संग
गोवर्द्धन पूजन की गाथा,
फैशन सा
बन गया रौंदना
रोज-रोज अब सागरमाथा;
मस्त हुआ जाता है मानुष
एवरेस्ट पर झंडे गाड़।
रोका नहीं
यहाँ भी हमने,
अपना विश्वविजय का घोड़ा,
बाँध दिए तटबंध
नदी को
जैसा चाहा, वैसा मोड़ा;
देखो-देखो हमने बीघों
रत्नाकर को दिया पछाड़।
- ओमप्रकाश तिवारी

Wednesday, April 1, 2015

मूर्ति फिर खंडित हुई

हो गई फिर
मूर्ति खंडित
आस्था से जो गढ़ी थी।
हम तो पहले से ही
ठगहारों के
मेले में खड़े थे,
स्वर्ग दिखलाने को
जीते जी
स्वयं तुम ही अड़े थे;
बात में भी
चाशनी की
इक परत मोटी चढ़ी थी।
तुम कुम्हारों
की कमी
दुनिया को समझाते रहे,
दूध चन्दन
के कटोरे
में ही गरमाते रहे;
काठ की हाँडी
बताओ
कब - कहाँ पहले चढ़ी थी।
समझते हैं खेल
कुछ जन
छोड़ना बातों का सोशा,
दुःख अपरिमित
किंतु देता
टूटता है जब भरोसा;
किन उमीदों
पर चढ़ाऊँ
जो लता पहले चढ़ी थी।
- ओमप्रकाश तिवारी