Saturday, November 5, 2016

युद्ध

कौन चाहता है
धरती पर,
आखिर बेजा युद्ध।
जान रहा हूँ मित्र
युद्ध के
सारे दुष्परिणाम,
बेवाओं की चीख
तड़पती सुबह
बिलखती शाम;
लेकिन कब तक
बने रहेंगे
हम भी गौतम बुद्ध ।
कई दशक से
रोज लिख रही
अखबारों की स्याही,
एलओसी फिर
लील गई
अपने दो-चार सिपाही;
श्वेत कपोतों
वाली भाषा
जाती दिखे विरुद्ध।
अगर न छोड़े
कुटिल पडोसी
हरदम काँटे बोना,
कब तक जारी
रक्खा जाए
भला शांति को ढोना;
लाफिंग बुद्धा
से कहिए अब
होना सीखे क्रुद्ध।
- ओमप्रकाश तिवारी
(13 अक्तूबर, 2016)

चाटा अपने गाल पर

जैसे कोई
मार रहा हो
चाटा अपने गाल पर।
बेलगाम जिह्वा की हरकत
बुद्धि हुई पाषाण,
आँखों से आँसू की धारा
रोएं जैसे राँड़,
नाच रहे ये
किन्नर जैसे
पड़ोसियों की ताल पर।
माँ का दूध पिया है या फिर
हैं विष सींची बेल,
इन लोगों के लिए देश भी
राजनीति का खेल,
असर न होता
किसी बात का
इनकी मोटी खाल पर।
श्वेत वसन कपटी स्वभाव है
इन्हें न जानो हंस,
दूध पिलाते रहो सर्प को
पर वह देगा दंश,
इन्हें फिसलते
देखा सबने
सत्ता, सुविधा, माल पर।
- ओमप्रकाश तिवारी
(5 अक्टूबर, 2016)