Wednesday, March 20, 2013

होलिके स्वागत तुम्हारा

होलिके
स्वागत तुम्हारा !

हिरण्यकश्यपु
की व्यवस्था
आज भी आबाद है,
हाथ जोड़े
आस में, प्रभु की
खड़ा प्रह्लाद है ;

आजमा लो
बल तुम्हारा !

अब तेरे
स्नान ख़ातिर
हर तरफ ही आग है,
किंतु
तेरी चूनरी में
एक छल का दाग है ;

सोच लो
आगत दुबारा !

आज भी
भाई-भतीजावाद
की भरमार है,
झूठ-सच में
एक चुनना
पर तेरा अधिकार है ;

क्या नहीं
काफी इशारा !

(21 मार्च, 2013)

Monday, March 18, 2013

मत बनो चंदन

मत बनो चंदन
डसेंगे,
रोज विषधर
रात-दिन ।

जिधर देखो
वन ही वन है,
और नित
होता सघन है ;
पुष्प दिखते
खूबसूरत,
किंतु उनमें भी
चुभन है ।

सच कहो
तुम जी सकोगे ?
अरण्य का जीवन
कठिन !

मित्र
शीतलता तुम्हारी,
पड़ेगी
तुमपे ही भारी ;
आएंगी
संबंध बनकर,
कई तलवारें
दुधारी ।

ना बचा पाओगे
अपने लिए,
दिन का
एक छिन ।

लोग तो
आते रहेंगे,
तुमको
भरमाते रहेंगे ;
ले सुवासित
गंध तुमसे,
खुद को
महकाते रहेंगे ।

स्वयं को घिस
सजाओगे,
कब तलक
माथे मलिन !

( 19 मार्च, 2013)




Friday, March 15, 2013

लेकिन पाया माँ का प्यार

चॉकलेट
कम खाई मैंने,
लेकिन पाया
माँ का प्यार ।

घर में रहनेवाली
माँ थीं,
घर ही था
उनका संसार,
हँसते-हँसते
दिनभर खटतीं
लगी गृहस्थी
कभी न भार

गरम पराठे
दूध-मलाई,
फिर भी नखरे
मेरे हजार ।

न आया का
दूध चुराना
न मेरे
हिस्से का खाना,
खुद ही
उबटन-तेल लगाकर
थपकी देकर
मुझे सुलाना

पल भर को भी
बाहर जाऊँ,
तो आने तक
तकतीं द्वार ।

नहीं बोर्डिंग का
सुख पाया
न पड़ोस में
समय बिताया,
क्रेच व बेबी सिटिंग
कहाँ थे
था माँ के
आँचल का साया

जन्मदिवस पर
केक न काटा,
किंतु गुलगुलों
की भरमार ।

( 16 मार्च, 2013)



Saturday, March 2, 2013

मध्य में हूँ, कहाँ जाऊँ

मध्य में हूँ
कहाँ जाऊँ ?

पेट खाली,
पर जुगाली
अब यही दस्तूर है,
दिन के संग-संग
रात पाली
किंतु दिल्ली दूर है ।

क्या निचोड़ूँ
क्या नहाऊँ

माह में बस
एक दिन के लिए
हम सुल्तान हैं,
शेष उन्तिस दिन तड़पते
जेब में
अरमान हैं ।

कैसे खाऊँ
क्या बचाऊँ ?

कंपनी के सेठ जी
हरदम लगे
नाराज हैं,
और घर पे
कामवाली बाइयों के
नाज हैं ।

किस तरह
सबको मनाऊँ ?

कर्ज लेकर
फ्लैट-बंगला, कर्ज से ही
कार है,
जो बचे वो
कर समझकर
काटती सरकार है ।

किस तरह
सपने सजाऊँ ?

( दो मार्च, 2013 - बजट के तीसरे दिन मध्य वर्ग की दशा का अनुभव करते हुए ) 

Friday, March 1, 2013

काश कफन में होती जेब

काश
कफन में होती
जेब !

मुश्किल से बनता है पैसा
करना पड़ता ऐसा-वैसा ,
मरता है जमीर घुटघुटकर
लगता लांछन कैसा-कैसा ;

इतनी कठिन
कमाई को भी,
देश समझता है
क्यूँ ऐब !

राजनीति बर्रों का छत्ता
यूँ ही न मिल जाती सत्ता,
जेल-बेल का लंबा चक्कर
उड़ता है गाँधी का पत्ता ;

फिर भी
मेरा काम आपको,
लगता है
सौ टका फरेब !

जो आया है उसको जाना
रह जाना है यहीं खजाना,
लिखवा कर लाया हर मानुष
अपने हिस्से का हर दाना ;

सपनों में
आती है फिर भी,
लाल-हरे
नोटों की खेप !

( एक मार्च, 2013)