Wednesday, October 31, 2012

दिल्ली को देख रहा बाज

यमुना के तीर बैठकर
दिल्ली को देख रहा बाज ।

चमक-दमक लकदक माहौल
ईंटों के वृक्ष की कतार,
काला जल उठती दुर्गंध
दरिया में घिरती है धार ;

मोटर व मिलों के धुएं
पहनाते जब नभ को ताज,
प्रलय पूर्व संध्या का मित्र
तब देखो मोहक अंदाज़ ।

यंत्र के समान हुआ आदमी
पेट छोड़ किसे क्या लगी,
सुबह-शाम सफर में कटे
नाम इसी का है जिंदगी ;

इसी भागदौड़ बीच कब
बिखर गया कौटुंबी साज,
मृगतृष्णा के पीछे हाय
दौड़ेगा कब तक समाज ।

ऊँचे - ऊँचे भवनों में
कानूनों के झंझावात,
सदा शून्य रहता निष्कर्ष
बात-बात पर केवल बात ;

विधि का विधान व्यर्थ है
प्रासंगिक छद्म छंद आज,
सिसक रहा बेचारा देश
मुस्काए कुटिल राज-काज ।

( 30 अक्तूबर, 1991 को पहली दिल्ली यात्रा से लखनऊ लौटते हुए ट्रेन से दिखा था यमुना के लौहपुल पर बैठा बाज )  


No comments:

Post a Comment