Tuesday, December 11, 2018

इस दिन खातिर !

ढपली-थाली, जो भी पाया
खूब बजाया, नाचा-गाया
इस दिन खातिर !

जन्म दिया, कर पालन-पोषण
माँ दिखती बदहाल,
तुम समर्थ हो गए, तो हुई
माँ जी का जंजाल !
शिखर छुओ तुम, रहा हमेशा
ये उसका आशीष,
शिखरपुरुष हो गए आप, और
माँ घर में कंकाल  !!

निराजली व्रत सकठ-अष्टमी,
तुलसी को जल - रोज चढ़ाया
इस दिन खातिर !

दिया ननद को नेग, और
दी हिजड़े को बख्शीश,
दूर-दूर तक देवालय में
जाय नवाया शीश ;
हुई मुहल्ले भर की दावत
लड्डू बँटे हजार,
खुशियाली में कन्याओं को
बाँट दिए दस-बीस।

खुद गीले में सो करके भी
सूखे में था तुझे सुलाया
इस दिन खातिर !

तुझ जैसी ही रही गर्भ में
पर था दर्जा दोयम,
हाजिर रहती हर पुकार पर
करें इशारा जो हम ;
रखी हमेशा तेरी खातिर
एक मिठाई ज्यादा,
फिर भी चुप्पी साध रह गई
बहन तुम्हारी हरदम।

ऐसी बेटी विदा हो गई
लेकिन रक्खी तुझसे माया
इस दिन खातिर !
- ओमप्रकाश तिवारी
(11 दिसंबर, 2018) 

बताओ बाबू जी

पाँच बरस पहले तो
तुम थे, हम जैसे कंगाल,
शपथपत्र में नए, हो गए
कैसे मालामाल ?
बताओ बाबू जी !

किया कौन उद्योग, बताओ
किया कौन व्यापार,
किस विधि आई इतनी दौलत
आखिर छप्पर फाड़ ;
बताओ बाबू जी !

विरोधियों से हमें लड़ाया
फूटे कई कपार,
कैसे संसद में जाते ही
डाल दिए हथियार ;
बताओ बाबू जी !

डगर-डगर पैदल घूमे, जब
आए पहली बार,
अब पीछे-पीछे चलती हैं
कैसे दस-दस कार ;
बताओ बाबू जी !

क्षेत्र तुम्हारा जस का तस है
तनिक न बदला हाल
सिर्फ तुम्हारी बढ़ी तोंद पर
उठते कई सवाल ;
बताओ बाबू जी !

- ओमप्रकाश तिवारी
(09 दिसंबर, 2018) 

सपनों की दुनिया

अपने सपनों की
दुनिया इतनी छोटी है,
सिर पर छत एक, और
दाल-भात-रोटी है।

बस इतना चाह रहे
मेहनत का मोल मिले,
बच्चों का मुरझाया चेहरा
ज्यों फूल खिले ;

किंतु आस इतनी भी
पूर्ण नहीं होती है।

तुम आकर पांच बरस
में देते आश्वासन,
पर जुमला बन जाता
जाते ही वह भाषण ;

जाने क्यों बंधु लगे
नीयत ही खोटी है।

हमने कब चाँद और
तारों की माँग करी,
कब छप्पन भोग और
कब माँगा सूप-करी ;

वादों में तुमने ही
बाँटी तो बोटी है।
- ओमप्रकाश तिवारी
(08 दिसंबर, 2018)

नया हिंदुस्तान

यह सदी इक्कीसवीं का
नया हिंदुस्तान है।

दो में गेहूँ
तीन में चावल
हुआ इफरात है,
और
मनरेगा बदौलत
शाम भी 'आबाद' है ;

अब खुदा के ओहदे पर
जमा ग्राम प्रधान है।

नौजवाँ को चाहिए
बस नौकरी
सरकार की,
फिक्र
वेतन से अधिक है
ऊपरी दो-चार की ;

घाघ से बिल्कुल उलट
अब सोचता इंसान है।

है महानगरों में
बिगड़ी
और भी दिखती दशा,
घुन बना
है खा रहा अब
नौनिहालों को नशा ;

ये चलन ही देश का
सबसे बड़ा नुकसान है।
- ओमप्रकाश तिवारी
(06 दिसंबर, 2018)

Thursday, December 6, 2018

बॉस

तुम सही हो
ये सही है,
किंतु मेरी बात मानो।

फायदा क्या 
इस तरह 
तनकर खड़े रहकर भला,
काटने पर 
क्यों तुले हो
स्वयं बच्चों का गला ;

बॉस वो है
नाकि तुम हो,
बस अटल यह सत्य जानो।

रीढ़ की हड्डी
झुका लो
और घुटने टेक दो,
काम आएगा
न एफडी
अहं का, अब फेंक दो ;

नौकरी है दोस्त 
समझो,
और मत अब रार ठानो। 

खुश रहोगे यार
बस यह 
सूत्र अपनाओ जरा,
कल सुबह 
लेकर मिठाई 
घर पे दे आओ जरा ;

रोज चखकर 
टिफ़िन उसका,
स्वाद सब्जी का बखानो। 

- ओमप्रकाश तिवारी
(6 दिसंबर, 2018)

ड्रामा

इस ड्रामे का
प्रथम नियम है,
इसमें पर्दा नहीं खुलेगा।
दर्शकगण
नाचें-गाएंगे
चिल्लाएंगे-झल्लाएंगे,
ज्यादा से ज्यादा
क्या होगा ?
कुर्सी पर से उठ जाएंगे !
किंतु देखना
नाट्यगार से
कोई बंदा नहीं हिलेगा।
रोचकता से
भरा हुआ है,
दर्शकमंडल डरा हुआ है,
चरमबिंदु पर
पता चल रहा
सूत्रधार तो मरा हुआ है ;
जिसको नायक
मान लिया वह,
सबको छाती ठोंक छलेगा।
जिस पर्दे को
देख रहे हो,
उसके पीछे ही है ड्रामा,
कोई है
'कुलीन' अभिमन्यु
तो कोई है शकुनी मामा ;
'लोक' द्रौपदी को
इस युग में
सखा कृष्ण अब नहीं मिलेगा।
- ओमप्रकाश तिवारी
( 6 दिसंबर, 2018)

Sunday, December 2, 2018

बड़े लोग

बड़े लोग हैं
बड़ा अलहदा
उनके घर का तौर-तरीका।
हर कमरे में
इक टीवी है
देखे, जिसको जो पसंद हो,
कोई न खटकाए
साँकल
चार दिनों से भले बंद हो ;
जाना बेटे के
कमरे में
माना जाता नहीं सलीका।
इंतजार
पूरे कुनबे का
करती रहती डाइनिंग टेबल,
मिलते हैं
बस मुँह लटकाए
उस पर दादी-दादा केवल ;
त्यौहारों
में भी रह जाता
स्वाद व्यंजनों का है फीका।
शाम ढले
बेटा जाता है
बेटी लौटे रात गए,
सब अपनी
मर्जी के मालिक
किसको क्या माँ-बाप कहे ;
प्रगतिशील
दुनिया है ये ही
कौन करे इस पर अब टीका।
- ओमप्रकाश तिवारी
(02 दिसंबर, 2018)