Saturday, September 15, 2018

कुछ दिनों पहले

ऊँ
.....
कुछ दिनों पहले
अभी बस
कुछ दिनों पहले

पान की दूकान पर
कुछ चल रही थी बात,
था विषय यूँ ही कोई
बस आज के हालात ;
कट लिए मुझसे हमारे
रोज के साथी,
जान बैठे जब अचानक
वो हमारी जात !

कुछ दिनों पहले
अभी बस
कुछ दिनों पहले

जश्न के माहौल में था
वह बगल का घर,
उस पड़ोसी को मिला था
कोर्ट का फेवर ;
हम जिन्हें समझा किये
हैं सिर्फ 'दो लड़के'
था उन्हीं में
एक बेगम-दूसरा शौहर !

कुछ दिनों पहले
अभी बस
कुछ दिनों पहले
गार्डेन में रोज मिलकर
मुस्कुराता था,
हाय-हैल्लो बोलकर बस
गुजर जाता था ;
खाल में खरगोश की
निकला लकड़बग्घा,
जो किसी कॉलेज में
'कुछ तो' पढ़ाता था !

- ओमप्रकाश तिवारी
(14 सितंबर, 2018)

Wednesday, September 12, 2018

संबंध

जंग लग रहा संबंधों में
झाड़ो-पोछो
पुनः जिलाओ।

माँ से बात हुए कितने दिन
बीत गए
कुछ याद नहीं,
छोटा भाई क्या करता है
यही बड़े को
ज्ञात नहीं ;

कम से कम रविवार सुबह तो
इन अपनों को
फ़ोन मिलाओ।

स्कूलों के दिन भी क्या थे
याद कीजिए
वह साथी,
इंटरवल में जिसका डिब्बा
क्लास छीनकर
थी खाती ;

अच्छा हो, इक रोज बुलाकर
गप्प मारो
कुछ खिलाओ।

रोज पाक को गाली देते
नीति देश की
कोस रहे,
बगल फ्लैट में कौन रह रहा
नहीं किसी को
होश रहे ;

कभी पड़ोसी को 'बेमतलब'
किसी शाम तो
चाय पिलाओ।

- ओमप्रकाश तिवारी 

Saturday, September 8, 2018

मकड़ी

बुन रही है जाल
कुछ जंजाल
फिर मकड़ी।

रहे लापरवाह हम
था घर पड़ा गंदा,
मिल गया मौका उसे
चालू किया धंधा ;

साफ दिखता
वो बुनाई
कर रही तगड़ी।

छाप कर बैठी दिखे
हर ओर का कोना,
लग रहा अब तो निरर्थक
स्वयं का होना ;
 
है निडर-निर्भीक
सदैव
ही दिखे अकड़ी।

नींद गायब हो गई
भयभीत हूँ हरदम,
है दिवस में भी यहां
महसूस होता तम;

जाल उसका
जान मेरी
लग रही जकड़ी।

- ओमप्रकाश तिवारी