Sunday, August 13, 2023

अपनी माटी


चमक-दमक में
महानगर के
याद आ रही अपनी माटी।

दरक-दरक कर
बरखा - दर - बरखा
धसकीं घर की दीवारें,

जब शहरों में
संकट छाया
वे दीवारें, रोज पुकारें ;

याद आ रही
बिकी खतौनी
थी जो भाई के संग बाँटी।

लॉक हुआ जब
महानगर, अरु
हाथ लगी नौकरिया बिछड़ी,

नगर निगम
अहसान जताकर
बाँट रहा है सूखी खिचड़ी ;

हाथ-पाँव यदि
वहाँ चलाते
अपनी माटी हमें खिलाती।

भले दिनों में
बहुत भले हैं
नगर सभी को खूब लुभाएँ,

लेकिन यह भी
परम सत्य है
शहरों की अपनी सीमाएं ;

पुनः आसरा
देगी अब तो
टूटी - दरकी माँ की छाती
 
- ओमप्रकाश तिवारी
(19 मई, 2020)

(मई का तीसरा सप्ताह शुरू होते-होते मुंबई में मेरे कई साथी और जानने वाले अस्पताल पहुँच चुके थे। एक-दो निकट परिचित विद्युत शवदाहगृह की भेंट चढ़ चुके हैं। अब बिल्डिंगों में रहने वाले कई रिश्तेदारों और मित्रों को भी अपने गाँव की याद सताने लगी है। तब फूटीं ये पंक्तियां )


स्वेद की गंगा

हाइवे पर 

बह रही है

स्वेद की गंगा ।

दिख रहे हैं
काफिले दर काफिले
हर ओर,
रात लंबी है बहुत
दिखती न
इसकी भोर ;

राह आधी 
भी हुई ना
भर गई जंघा ।

आज 
मेहनतकश श्रमिक गण
बन गए फुटबॉल,
जा रहे चलते
न कोई
पूछता है हाल ;

हर व्यवस्थादार
अब तो
दिख रहा नंगा।

गिर चुकीं
लाशें कई
कोई चले भूखा,
है सुरक्षित
गाँव अपना
रोटला रूखा ;

पुनः लौटेंगे
रहा यदि
सब भला-चंगा।

- ओमप्रकाश तिवारी
(14 मई, 2020)

(मई का प्रथम सप्ताह बीतते-बीतते महानगरों से श्रमिकों के पलायन की खबरें आने लगी थीं। मुंबई - नासिक हाइवे पैदल चलते श्रमिकों से पट गया था। तब 14 मई को लिखा गया यह नवगीत )


मेरे दिल का हाल


तुम्हें मुबारक
राशन-पानी
पका पकाया माल,

तुम क्या जानो
कोठी वालों
मेरे दिल का हाल !

हम अटके हैं
महानगर में
घर में सब परिवार,
मात-पिता का 
पूत अकेला
मैं ही जिम्मेदार ;

होगा कौन सहाय
यहाँ पर
यदि आ जाए काल !

नरक सरीखी
इक खोली में
बारह जन का वास,
बाहर निकलो
डंडे खाओ
घर में जिंदा लाश ;

फारिग होना भी
बस्ती में
अब तो हुआ मुहाल !

महुआ चूने लगा
गांव में
आने लगे टिकोर,
भूखे-प्यासे
हम परदेसी
बैठे हैं इस ओर ;

पछुआ में पक
बाट जोहती
है गेहूँ की बाल !

- ओमप्रकाश तिवारी
(14 अप्रैल, 2020)

(14 अप्रैल तक समाज के एक वर्ग द्वारा यह तर्क दिए जाने लगे थे कि महानगरों में अटके श्रमिकों को भरपूर भोजन मुहैया कराया जा रहा है। फिर वे क्यों अपने घर जाने को उतावले हो रहे हैं ! तब श्रमिकों की मनःस्थिति को दर्शाते इस नवगीत की रचना होती है)


लॉक डाउन

माना कि 

मन में कुछ डर है,
लेकिन धरती - आसमान में
दिखता कुछ तो
अति सुंदर है।

सुबह-सुबह 
कोयल की कू - कू
महानगर में अचरज सी थी,
सच कहता हूँ
बालकनी में
आकर गौरैया बैठी थी;

बीचोबीच 
शहर में जैसे
मेरे बचपन वाला घर है।

नदिया का जल
साफ हो गया
वायु प्रदूषण हाफ हो गया,
दुर्घटना में
मरने वालों 
का भी बेहतर ग्राफ़ हो गया;

स्याह दिखाई
देता था जो,
दिखता वह नीला अम्बर है।

सुबह रही ना
हड़बड़ वाली,
चलते-चलते वाली थाली,
बैठ पिता-माता
के संग अब
पीते गरम चाय की प्याली;

बेटे के घर में
रहने से,
भ्रम होता वह गया सुधर है।

- ओमप्रकाश तिवारी
( 6 अप्रैल, 2020 )

(लॉक डाउन के 12 दिन गुजरते ही जालंधर से हिमालय पर्वत दिखाई देने, दिल्ली में यमुना के साफ हो जाने और मुंबई में तेंदुए के सड़क पर घूमने की खबरें आने लगीं, तो 6 अप्रैल को यह नवगीत बना था। )

सन्नाटा

 

महानगर के
गलियारों में 
मरघट जैसा सन्नाटा है।

दूर-दूर से
छिटके-छिटके
लोग कर रहे हैं गुडमॉर्निंग,
मिलना-जुलना
सख्त मना है
जारी है सरकारी वार्निंग;

एक अदृश्य
अनोखे भय ने
जन को जन से ही बाँटा है।

लोग कह रहे
बीमारी है
जिससे कायनात हारी है,
पीएम से सीएम तक
सबके 
चेहरों पर दहशत तारी है;

प्रगतिशीलता 
के गालों पर 
यह तो कुदरत का चाँटा है।

एक मुनादी
पर थम बैठे
सारी दुनिया के कल-पुर्जे,
शायद मानव
चुका रहा है
आज प्रकृति के सारे कर्जे;

गीला कंगाली में
दिखता
महाशक्तियों का आटा है।

- ओमप्रकाश तिवारी
(30 मार्च, 2020)

(30 मार्च को लॉक डाउन का प्रथम चरण शुरू हुए एक सप्ताह ही हुए थे, और मुंबई सायँ-सायँ कर रही थी। तब यह नवगीत अपने आप बन पड़ा था)

Wednesday, March 22, 2023

व्यथा किसान की



......
समझें एसी कमरे वाले
कैसे व्यथा किसान की !

कर्ज काढ़ कर बोया-जोता
फसलों की उम्मीद से,
पूस-माघ में खेत रखाया
जाग-जाग कर नींद से;

क्रुद्ध दृष्टि पड़ गई अंत में
विधि के क्रूर विधान की।

हरा-भरा था फसलों जैसा
कल तक मन परिवार का,
एक रात में दृश्य दिख रहा
देखो हाहाकार का ;

बेमौसम बरसात ले गई
फसलें सब अरमान की।

वादे तो सारे सरकारी
लगते हैं अब झूठ के,
बीमा-राहत चुटकी-चुटकी
जीरा मुँह में ऊँट के।

राहत नहीं, चाहिए हमको
रोटी बस सम्मान की।

- ओमप्रकाश तिवारी
22 मार्च, 2023
विक्रम संवत 2080, गुड़ी पड़वा

Wednesday, December 18, 2019

बिना तपे

ऊँ
.....
बिना तपे
कुछ ठोकर खाए
कहाँ सफल इंसान बना है !
सोने का चम्मच
ले मुँह में
जन्में राम अयोध्यावासी,
गाथा उनकी
गाई जाती
जो प्रभु भटके हो वनवासी ;
बिना लड़े
जग की कुनीति से
कौन, कहाँ भगवान बना है !
देवालय में
सुंदर प्रतिमा
बड़े भाव से पूजी जाती,
धूप-दीप अरु
पुष्प चढ़ाकर
दुनिया उसको शीश नवाती ;
संगतराश की
चोट सहे बिन
कहाँ पूज्य पाषाण बना है !
याद करो
सागर मंथन को
अमृत घट थे देव ले उड़े,
एक बूँद
पाने की खातिर
अपनी शक पर दैत्य भी लड़े
बिना गरल को
गले उतारे
कौन भला गणनाथ बना है !
- ओमप्रकाश तिवारी
(19 दिसंबर, 2019)