Thursday, October 22, 2015

अपने मन का रावण मारो

मार सको तो
धनुष उठाओ
अपने मन का
रावण मारो।

रहे पड़ोसी का
घर ऊँचा
तो मन अपना
बैठा जाए,
पैसे चार
हाथ आ जाएं
तो बेमतलब
ऐंठा जाए ;

ये प्रवृत्ति ही
ख़तरनाक है
अस्त्र उठा
इसको संहारो।

कभी न
बेटी जैसी दिखती
अपनी छोड़
परायी बेटी,
अब तो माँ की
पूज्य चरण रज
लेने में
होती है हेठी ;

संभव हो तो
ऐसे दुर्गुण
को सीधे
परलोक सिधारो।

चार सदस्यों
वाला घर है
संभल रहे न
अपने बच्चे,
चार जने हों
सुनने वाले
तो उपदेश
सुनाएं अच्छे ;

परनिंदा के
दुष्ट दैत्य की
नाभी में
अपना शर मारो।

- ओमप्रकाश तिवारी
( 2015 की विजयदशमी पर लिखा गया नवगीत) 

Sunday, October 18, 2015

कितना नीचे और गिरोगे ?

कितना नीचे और गिरोगे ?
च्च...च्च...च्च !
च्च...च्च...च्च !!

मर्यादा का ज्ञान रहा, न
रिश्तों का ही भान रहा
पापों के दुष्परिणामों का
न तुमको अनुमान रहा

ईश्वर से भी नहीं डरोगे ?
च्च...च्च...च्च !
च्च...च्च...च्च !!

मानवता को गोड़ रहे हो
कच्ची कलियाँ तोड़ रहे हो
तुम जैसे ही दुष्ट नराधम
इस समाज के कोढ़ रहे हो

कब तक सीताहरण करोगे ?
च्च...च्च...च्च !
च्च...च्च...च्च !!

रोज तुम्हें जाता है कोसा
किस पर दुनिया करे भरोसा
तुम जैसे कलि दैत्य रूप को
भला किसलिए जाए पोसा

सबकी नजरों में अखरोगे ।
च्च...च्च...च्च  !
च्च...च्च...च्च !!

- ओमप्रकाश तिवारी 

Tuesday, October 13, 2015

जब से घुसा गांव में वोट

दफन
हो गया भाईचारा
जब से घुसा गाँव में वोट।

सुख-दुख में थे
साथ पड़ोसी
रहा साथ ही जीना-मरना,
बेटे का
मुंडन-छेदन हो
या बेटी की शादी करना;

रहे सदा जो
साथ हमारे
नजर चुरा हो जाते ओट।

चौपालों का
रंग अजब था
गजब लगे चालीसा गान,
हरिया की
ढोलक पर गूँजे
आल्हा औ बिरहा की तान;

सब कुछ
अपने साथ ले गए
बाँट-बाँट कर नेता नोट ।

पाँच बरस में
एक इलेक्शन
बंद रोज की दुआ-सलाम,
कई मुकदमे
शुरू हो गए
जीवन भर की नींद हराम;

लोकतंत्र यूँ
घर में घुसकर
पहुँचा गया करारी चोट।

- ओमप्रकाश तिवारी 

Tuesday, October 6, 2015

सियासत छाई

लिट्टी-चोखा, दूध मलाई,
सब पर आज सियासत छाई।

आलू फिर इस बार खड़े हैं,
पहले भी छह बार लड़े हैं;
संगी-साथी आगे-पीछे,
जिन पर बहु आरोप जड़े हैं।

अभी-अभी पर्चा भर लौटी
दाल ले रही है अंगड़ाई।

थाली के बैंगन पर अबकी,
टिकी निगाहें दिखतीं सबकी;
जब भिंडी की जात साथ है,
जीत प्याज की समझो पक्की।

जिस सूरन की पूछ नहीं थी,
उसे कहें सब भाई-भाई।

टिंडा चढ़ा चुनावी रथ पर,
बढ़ता जाय विजय के पथ पर;
कद्दू के दल वाला झंडा,
लहराता है सबकी छत पर

ऐंठी बैठी अरवी बोले,
दो हिसाब सब पाई-पाई।

- ओमप्रकाश तिवारी 

Sunday, October 4, 2015

माँ तुम ऐसा रूप धरो


दुर्गे
दुर्गा शक्ति बनो तुम
मन बनना इंद्राणी।
बेशक, हम सबको भाती है
नई चेतना सारी,
नहीं चाहते आधी दुनिया
रहे सदा बेचारी ;
बनो
इंदिरा, विजयलक्ष्मी
या झाँसी की रानी ।
अष्टभुजी बहुशस्त्र सजी
कर रक्तिम खप्परवाली,
दानव के सीने पर हो पग
क्रोधमयी माँ काली ;
सनी लियोनी
जैसी प्रतिमा 
मत गढ़ना कल्याणी।
माँ तुम ऐसा रूप धरो
ना नजरें हों शर्मिंदा,
ध्वज भी तेरा फर-फर फहरे
मर्यादा हो जिंदा ;
श्रद्धा
उपजे, नहीं वासना में
डूबा हो प्राणी।
- ओमप्रकाश तिवारी