Thursday, December 27, 2012

दिनकर, वादा करो

दिनकर, वादा करो
सुबह
तुम दोगे अच्छी

रात भयावह गई
बुरे सपनों में डूबी
दिल घबराता रहा
देख हर बात अजूबी

आनेवाली रात
नींद
न टूटे कच्ची

कोर्ट कचहरी पुलिस
गबन अगणित घोटाले
रहे डराते हमें
रात भर साये काले

रवि, ले आना
ढूंढ
कोई तो सूरत सच्ची

चूनर के चिथड़े, चीखें
दहलाने वाली
महिषासुर के आगे
दिखीं कांपती काली

नया सबेरा देख
डरे ना
कोई बच्ची

( 28 दिसंबर, 2012 - नए वर्ष के सूरज से कुछ उम्मीदों के साथ) 

Friday, December 21, 2012

महामहिम जी न्याय चाहिए

महामहिम जी
न्याय चाहिए

लाठी-गोली
पुलिस की टोली
नेताओं की
मीठी बोली
जलतोपों की
तीखी धारें
आँसू गैस
खून की होली

ऐसे जुल्म
जबर्दस्ती का
अब हमको
पर्याय चाहिए

कभी कोख में
मरना पड़ता
कभी खाप को
सुनना पड़ता
महानगर की
सड़कों पर भी
डर-डर के है
चलना पड़ता

घिसे पिटे
पाठों से हटकर
एक नया
अध्याय चाहिए

करके जुल्म
छूटते कामी
मिलती है हमको
बदनामी
लाचारी कानून
दिखाए
लोग निकालें
हममें खामी

बहुत हुई
असहाय व्यवस्था
अब तो कोई
उपाय चाहिए

( 22 दिसंबर, 2012 , दोपहर 1.40 बजे, दिल्ली में विजय चौक पर प्रदर्शन कर रहे बच्चों पर लाठी, पानी की बौछारें और आँसू गैस छोड़े जाने का दृश्य देखते हुए)




Wednesday, December 19, 2012

मुट्ठी बांध - जोर से बोल

मुट्ठी बांध
जोर से बोल,
प्यारे अपनी
किस्मत खोल ।

सत्ता सदा
शक्ति की दासी,
दबा दिए जाते
मृदुभाषी ;

बजा जोर से
अपनी ढोल ।

पढ़े - लिखों का
फीका रंग,
छाप अँगूठा
बने दबंग ;

आगे बढ़ तू
करके झोल ।

दिखे जिधर भी
पलड़ा भारी,
झुकने की
कर ले तैयारी ;

संग हवा के
तू भी डोल ।

करता रह तू
सारे पाप,
मुँह में राम
नाम का जाप;

जब तक खुले
न अपनी पोल ।

(19 जुलाई, 2013)

Tuesday, December 11, 2012

कुम्हड़ा-लौकी नहीं चढ़ रहे

कुम्हड़ा-लौकी
अब छप्पर पे
नहीं चढ़ रहे गांव में

रोज चढ़ रहीं दारू मैया
गुटका-गांजा-सुरती भैया
चौराहे पर चाय केतली
कभी भांग की ता-ता थैया


प्रगति कर रही
है नव पीढ़ी
बेड़ी बांधे पांव में


चढ़ी बांस पे ताश की गड्डी
भूले खो-खो और कबड्डी
गाय-भैंस को देशनिकाला
दिखती है गालों की हड्डी

पढ़ना-लिखना नकल भरोसे
छेद कर रहे नाव में

खूब चढ़ रही कर्ज-उधारी
चमक रही है साहूकारी
खानापूरी में माहिर हैं
जिन्हें बैंक कहते सरकारी

फिर भी चार्वाक
की दुनिया
दिखती गांव - गिरांव में

चढ़ती जाती हैं दीवारें
अनबन की छीटें-बौछारें
हर घर में दो-चार मुकदमे
भाई ही भाई को मारें

प्रेमचंद के पंच
मगन हैं
अपने-अपने दांव में

(11 दिसंबर, 2012 - नवंबर में हुई अपने गांव की यात्रा की उपज)

Tuesday, December 4, 2012

रोटी, कपड़ा और मकान



रोटी, कपड़ा और मकान

नहीं चाहिए वारे - न्यारे
नील गगन के चम-चम तारे
आश्वासन भी शीशमहल के
अपनी थैली में रख प्यारे

ला सकती हैं छोटी चीजें
मेरे चेहरे पर मुस्कान

संसद-सत्ता तुम्हें मुबारक
मोटर-बत्ती के तुम धारक
सिंहासन पर जमे रहो तुम
लोकतंत्र के बन उद्धारक

किंतु हो सके तो गरीब से
मत लो उसका धान–पिसान

पगडण्डी व सड़क तुम्हारी
ऊँची कॉलर कड़क तुम्हारी
रहे सलामत राजा साहेब
दबंगई व हड़क तुम्हारी

फसल चरो तो चरो साथ क्यूं
ले जाते हो तोड़ मचान

समझ रही है जनता सारी
लगी देश को जो बीमारी
अगर रहनुमा न समझे तो
समझाएगी बारी - बारी 

चेत सको तो चेतो वरना
हो जाएगी बंद दुकान 

( 4 दिसंबर, 2012- संसद में एफडीआई पर चल रही रोचक बहस को सुनते हुए )

Saturday, December 1, 2012

गाली देना है अपना अधिकार

लोकतंत्र में
गाली देना
है अपना अधिकार

अपना काम पड़े तो देना
टेबल के नीचे से लेना
भला चलेगी कैसे दुनिया
अगर चले न लेना-देना

फिर भी हमको
भ्रष्टाचारी
दिखती है सरकार

बाट जोहता रहता दफ्तर
कुछ कहने से डरता अफसर
लंच खत्म होते ही कुर्सी
बन जाती है अपना बिस्तर

सहकर्मी
मेरी फाइल का
ढोते रहते भार

पांच बरस तक हरदम रोना
वोटिंग के दिन जमकर सोना
अगर गए भी मत देने तो
जात-पांत के नाम डुबोना

लेकिन हमको
नेता चहिए
बिल्कुल जिम्मेदार

क्रांति कर रहे हैं बिस्तर में
जीते हैं, मरते हैं डर में
भगत सिंह दो-चार चाहिए
लेकिन पड़ोस वाले घर में

तोप हमारी
कंधा तेरा
सपने हों साकार


( एक दिसंबर, 2012)

Tuesday, November 27, 2012

दादा अबकी लेकर आना एक मारुति कार

दादा अबकी
लेकर आना
एक मारुति कार

सुबह-शाम
सासू की खिच-खिच
ननद सुनाए ताना
गए तीन दिन बीत
गया मुंह
नहीं एक भी दाना

नई आल्टो से कम
कुछ भी
नहीं इन्हें स्वीकार

बाबू जी तो सीधे-सादे
ज्यों
दाँतों बिच जीभ
लेकिन ये
मिट्टी के माधौ
फूटे मेरे नसीब

दिन कट जाता
काम-काज में
रात हुई दुश्वार

जान रही, तुम
हो तंगी में
भैया बेरोजगार
मुनिया की
शादी में भी अब
बरस बचे दो-चार

दिल पर पत्थर
रखकर लिक्खी
चिट्ठी है इस बार

( 27 नवंबर, 2012)


Thursday, November 15, 2012

ताकि सम रह सके हिसाब

ताकि सम रह सके हिसाब

दूर पड़े हैं अम्मा-बाबू
अपनी ममता पे रख काबू
सेवा कर पाना तो दूर
हम अपने सपनों में चूर

मुन्ना अपने संग रहेगा
मत देखो यह प्यारा ख्वाब

पड़ता जब ईश्वर से पाला
नाम जपें हम गिनकर माला
याद नहीं करते बिन स्वारथ
जब तक मिलता रहे पदारथ

इसी तरह से ऊपर वाला
रखता अपनी पूर्ण किताब

सबको लूटा और कमाया
नहीं मदद का हाथ बढ़ाया
न दुख-दर्द किसी का बांटा
बस पैसे से रिश्ता-नाता

बोया जिसने बीज बबूल
नहीं मिलेगा उसे गुलाब

( 16 नवंबर, 2012 )

Tuesday, November 13, 2012

माते, क्यों रूठी हो हमसे

माते ! क्यों रूठी हो हमसे ।

पहले हफ्ते देर से आना
दस दिन के भीतर चुक जाना
दूध और पेपरवाले को
कल आना, कहकर टरकाना ;

कैसे करूँ गुजारा कम से ।

जब आती राशन की बारी
ड्योढ़ी रहती सदा उधारी
नया नियम है घरवाली का
हफ्ते में दो दिन तरकारी ;

पाँव गए हैं जैसे थम से ।

बिल्कुल बंद घूमना-फिरना
भाव गैस के सुनकर गिरना
दूध-दही तो अय्याशी है
तेल-फुलेल चढ़े अब सिर ना;

जूझूँ महंगाई के तम से ।

(दीपावली के पर्व 13 नवंबर, 2012 को माँ लक्ष्मी से शिकायत करते हुए) 

Monday, November 12, 2012

बहू चाहिए अफलातून

बहू चाहिए अफलातून ।

जैसी दद्दू के घर आई
जिस पर इतराती हैं ताई
कद-काठी में बिल्कुल वैसी
लेकिन ड्योढ़ी हो गोराई ;

जले देखकर सबका खून ।

पढ़ी-लिखी हो एम्मे पास
घर में लावे लाख-पचास
अगर मिले ऊँचे पदवाली
तो दहेज न चहिए खास ;

घूमे अमरीका रंगून ।

सिर पर डाले उल्टा पल्ला
उँगली में हीरे का छल्ला
उसकी फैशन स्टाइल पर
चर्चा करता रहे मुहल्ला ;

चम्मच को बोले स्पून ।

करे नौकरी वह सरकारी
साथ-साथ सब दुनियादारी
बच्चों के संग पति को पाले
घर की भी ले जिम्मेदारी;

रोटी भी सेंके दो जून ।

Saturday, November 10, 2012

घर एक बसा गोल

दिल्ली के दिल में घर
एक बसा
गोल ।

बच्चों से भरा-पुरा
लंबा परिवार,
आपस में झगड़ें सब
मुखिया बेकार ;

लगता है इस घर की
नींव रही
डोल ।

चेहरे चिकने लेकिन
दिखतीं कम मुस्कानें,
फट जातीं आस्तीन
दिन भर ताने-ताने ;

हर कुर्सी के नीचे
अरबों का
झोल ।

वादों में सेवा और
मन में बस है मेवा,
चुननेवाली नगरी
हो जाती है बेवा ;

साजन के आसन का
अरबों में
मोल ।

Friday, November 2, 2012

चौथ के चंदा निकल आ

चौथ के चंदा
निकल आ ।

शरद ऋतु की
पूर्णिमा
आकर गई है,
रात लगने लगी
फिर से
सुर्मई है ;

अब कहीं जाकर
न छिप जा ।

भूख में भी
प्यार का
अहसास है,
प्यास में भी
प्रिय मिलन की
आस है;

उनको अपने
साथ ले आ ।

सोलहो श्रृंगार
फीका
पड़ रहा है,
रंग मेंहदी
कंटकों सा
गड़ रहा है ;

तू परीक्षा
ले रहा क्या !

( करवा चौथ - 2 नवंबर, 2012) 

Wednesday, October 31, 2012

कर्फ्यू में है ढील


चलो सखी
सब्जी ले आएं
कर्फ्यू में है ढील ।

पांच मरे
पैंतालिस घायल
बोल रहे अखबार,
मुट्ठी भर की
आबादी में
गायब हैं दो-चार ;

कुत्ते रोएं रात
गगन में
चक्कर काटें चील ।

चच्चा के चेहरे
पर चुप्पी
दद्दू भी खामोश,
बरखुरदारों
की हरकत का
सिर पर ओढ़े दोष;

सिवईं उस घर से
आई ना
गई बताशा खील ।

लंबा रस्ता
ऊंची मंजिल
जाना तो था दूर,
किंतु आपसी
तकरारों ने
धो डाला सब नूर ;

पैंसठ पग में
हांफ रहे ज्यों
चले हजारों मील ।





( हमारे गृहजनपद अयोध्या (फैजाबाद) में 1992 में बाबरी ढांचा ढहाए जाने के बावजूद कोई जनहानि नहीं हुई थी। लेकिन 25 अक्तूबर, 2012 को दुर्गा मूर्ति विसर्जन के दौरान हुए साम्प्रदायिक दंगों के बाद वहां कर्फ्यू लगाना पड़ा । इसी दर्द से उपजा एक नवगीत 29 अक्तूबर, 2012 को लिखा गया ) 

दिखता सिर्फ बवाल

चाहे जितने चैनल बदलो
दिखता सिर्फ बवाल ।

दुराचार से सुबह शुरू हो
हत्याओं से शाम,
घोटालों पर बहस निरर्थक
चलना है अब आम ;

जिधर देखिए टोपी बदले
दिखें केजरीवाल ।

सास बहू की कथा बदलती
रोज नया इक रंग,
जोरू लखनलाल की भागे
रामचंद्र के संग ;

बात बात पर बहू ठोंकती
सासू जी से ताल ।

ज्योतिश पारंगत सुंदरियां
दिखें पलटती ताश,
कहीं खिलाएं निर्मल बाबा
हमें समोसा-सॉस;

कथा बांचकर पीट रहे हैं
लोग दनादन माल । 





( 19 अक्तूबर, 2012 को रचित ) 

गाए राग वसंत

चेहरा पीला आटा गीला
मुँह लटकाए कंत,
कैसे भूखे पेट ही गोरी
गाए राग वसंत ।

मंदी का है दौर
नौकरी अंतिम साँस गिने
जाने कब तक रहे हाथ में
कब बेबात छिने ;

सुबह दिखें खुश, रूठ न जाएं
शाम तलक श्रीमंत ।

चीनी साठ दाल है सत्तर
चावल चढ़ा बाँस के उप्पर
वोट माँगने सब आए थे
अब दिखता न कोई पुछत्तर;

चने हुए अब तो लोहे के
काम करें ना दंत ।

नेता अफसर और बिचौले
यही तीन हैं सबसे तगड़े
इनसे बचे-खुचे खा जाते
भारत में भाषा के झगड़े ;

साठ बरस के लोकतंत्र का
चलो सहें सब दंड ।

( 21 अक्तूबर, 2010 को रचित) 

शायद फिर आ गए चुनाव

हुए शुरू सतरंगी दाँव
शायद फिर आ गए चुनाव ।

दीवारों से अब तक
मिटी नहीं जो परतें
लिखी जा रहीं उनपर
नई-नई कुछ शर्तें ;

सागर में कागज की नाव ।

गुट-निर्गुट में उलझी
आपस की बातचीत
उड़ रही बयानों में
कहीं हार - कहीं जीत ;

बन गए बिसात शहर-गाँव ।

परिवर्तन की आशा
में होते परिवर्तन
शाश्वत कुव्यवस्था ही
करती फिर भी नर्तन ;

घावों पर लगे नए घाव  ।

स्वागत गणतंत्र किंतु
लगती किस्मत खोटी
दिन पर दिन छोटी
होती जाए रोटी ;

चढ़े गगन भाजी के भाव ।

(किसी चुनाव की आहट सुनाई देने पर लिखी गई ) 



दीप कहीं तुम बुझ न जाना !


दीप कहीं तुम बुझ न जाना !

छेददार माना की द्याली
होती जाए प्रतिपल खाली
थी तो बहुत कपास खेत में
किंतु चुरा ले गए मवाली ;

रात अमावस की घिर आई
तुम तो अपना धर्म निभाना !

हवा चल रही है तूफानी
राह नहीं जानी-पहचानी
साथ-साथ चलने की कसमें
निकलीं सब की सब बेमानी ;

अब तो नियमित क्रिया बन गई
सूरज का असमय ढल जाना !

अब न दीप जलाने वाले
खाने लगे बचाने वाले
धरे हाथ पर हाथ मूक हैं
औरों को समझाने वाले ;

ऐसी विकट घड़ी में दीपक
बाती एक उधार जलाना !

कसम तुझे दीप की उजास !


कसम तुझे दीप की उजास !

बाहर से जगर-मगर
करता है देश,
आँगन में तम खेले
शैतानी रेस;

मत करना झूठा परिहास !

गरदन तक कर्ज चढ़ा
करते घृतपान,
सोते अपने से छोटी
चादर तान ;

बन गए कुबेर क्रीत दास !

कम्प्यूटर काम करें
सौ-सौ का साथ,
बेकारी भोग रहे
कितने ही हाथ ;

मत रखना बोनस की आस !

अबकी तो मार गए
भाजी के भाव,
दीवाली के संगी
बने बड़ा-पाव ।

लोकतंत्र आया न रास !

( 26 अक्तूबर, 1997 को रचित ) 

झिलमिलाते दीप



झिलमिलाते दीप देखो
लग रहे कितने सलोने ।

कार्तिक की प्रात भीगी
दूब जैसे ओस से,
तैल मदिरा पी लहरते
हैं हुए मदहोश से;

आज ये ही बन गए हैं
बाल टोली के खिलौने ।

दीप्ति रवि की हैं चुराए
दिये माटी-धूर के,
देखते तूफान को भी 
साहसी ये घूर के;

पंक्ति-पंक्ति उजास बिखरी
दीखते नभ नखत बौने ।

रात है काली अमावस की
सुमेरु सी बनी,
झोपड़ी के द्वार दीपक
लग रहे संजीवनी;

प्रगति युग में भी ये थाती
आस्था की चले ढोने ।

( 18 अक्तूबर, 1990 को दीवाली की रात लखनऊ से फैजाबाद जाते हुए ) 

कैसा फागुन, कैसी होली

लाठी पुलिस
रबर की गोली
कैसा फागुन
कैसी होली ।

दिन दोपहरी
में सन्नाटा
शासन की गति
सत्यानाशी
घोड़ों की टापें
बस गूँजें
सड़कों के रंग
हुए पलाशी

उड़े गुलाल कहाँ
निर्दय ने
आँसू गैस
शहर में घोली ।

हवालात में
मैदानों के
सहमी सी
बैठी आजादी
कहना-सुनना
साफ मना है
ध्वनिविस्तारक
करें मुनादी

ढोल-मंजीरा
बंद कबीरा
बस अब
इंकलाब की बोली ।

( 7 मार्च, 1993 को यह कविता एक प्रदर्शन की कवरेज के दौरान हरियाणा पुलिस की लाठी खाने के बाद लिखी गई थी ) 

बूँद जा गिरे सीप

बूँद-बूँद को तरसे पंक्षी
बूँद जा गिरे सीप ।

कोस पपीहे किस्मत अपनी
रहती हरदम सोती,
भला किस गरज तुझ तक पहुँचे
बूँद बने जब मोती ;

नहीं यहाँ दो-चार पपीहे
प्यासा सारा द्वीप ।

इंद्रधनुष सजता है साथी
सूखे गगन यहाँ,
एक जून जो भूखा सोए
वो ही मगन यहाँ ;

जिसके आँगन बरसे सावन
उसकी सूखी जीभ ।

मेघ बीच भी नहीं ठिकाना
फिर-फिर वापस आए,
जिसे मायका कहे बूँद और
गर्व करे इतराए ;

कब तक ढोए निज आँखों में
तुझको भला गरीब !

( 24 अगस्त, 1997 को रचित ) 

बड़ी भयावह लागे बरखा

बड़ी भयावह लागे बरखा
बूँद बनी अभिशाप ।

बालक खेलें काल-कलौटी
उनको भाते मेह,
उधर धड़ाधड़ बुलडोजर से
उजड़ रहे कुछ गेह ;

इससे तो अच्छा था साथी
मई-जून का ताप ।

बैठ सुबह से शाम हो गई
मिली न कौड़ी एक,
किंतु सिपाही हफ़्ता खातिर
खड़ा लगाए टेक ;

और उधर घर जाकर सुनना
बेटी का आलाप ।

भूमिहीन के पांव तले की
छीने भूमि असाढ़,
एक अदद कुटिया गरीब की
बहा ले गई बाढ़ ;

इसी बहाने नेता अपने
गगन रहे हैं नाप ।

( 22 अगस्त, 1997 को रचित )

तुम्हें मुबारक शहरी गलियाँ

तुम्हें मुबारक शहरी गलियाँ
हमको प्यारा गाँव,
तुम्हें मुबारक कूलर-पंखा
हमें नीम की छाँव ।

कहाँ चमाचम डामर सड़कें
कहाँ डगर की रेह,
सूट-बूट में लकदक बाबू
धूर सनी यह देह ;

तन सिहराती पुरबा-पछुवा
ओस चूमती पांव ।

ऊँचे-ऊँचे भवन-कोठियाँ
ऊँची सभी दुकान,
चखकर देखे हमने बाबू
फीके थे पकवान ;

भली नून संग रूखी रोटी
खलिहानों की छाँव ।

सिमटी-सिमटी लगती दुनिया
किसका क्या है दोष,
कंकरीट के जंगल में जब
गुमसुम मिला पड़ोस ;

रिश्ते भी बाजार हो गए
उठते-गिरते भाव ।

( 10 जून, 1992 को दिल्ली में रची गई )

दिल्ली को देख रहा बाज

यमुना के तीर बैठकर
दिल्ली को देख रहा बाज ।

चमक-दमक लकदक माहौल
ईंटों के वृक्ष की कतार,
काला जल उठती दुर्गंध
दरिया में घिरती है धार ;

मोटर व मिलों के धुएं
पहनाते जब नभ को ताज,
प्रलय पूर्व संध्या का मित्र
तब देखो मोहक अंदाज़ ।

यंत्र के समान हुआ आदमी
पेट छोड़ किसे क्या लगी,
सुबह-शाम सफर में कटे
नाम इसी का है जिंदगी ;

इसी भागदौड़ बीच कब
बिखर गया कौटुंबी साज,
मृगतृष्णा के पीछे हाय
दौड़ेगा कब तक समाज ।

ऊँचे - ऊँचे भवनों में
कानूनों के झंझावात,
सदा शून्य रहता निष्कर्ष
बात-बात पर केवल बात ;

विधि का विधान व्यर्थ है
प्रासंगिक छद्म छंद आज,
सिसक रहा बेचारा देश
मुस्काए कुटिल राज-काज ।

( 30 अक्तूबर, 1991 को पहली दिल्ली यात्रा से लखनऊ लौटते हुए ट्रेन से दिखा था यमुना के लौहपुल पर बैठा बाज )  


अब सावन ऐसे आता है

अब सावन ऐसे आता है ।

जिन चौपालों में होता था
ढोलक की थापों पर आल्हा,
वहीं कुकुरमुत्तों से उगते
नेता नित्य बदलते पाल्हा;

जाने किस विचार में दादुर
गाते-गाते खो जाता है ।

हरे बाँस पर पेंग मारती
इठलाती गोरी हम भूले
कभी-कभी अब किसी ठूँठ पर
दिख जाते टायर के झूले ;

हाथों में मेंहदी रचना अब
रीति पुरानी कहलाता है ।

अलग पड़ी बहनों की गुड़िया
बालक खेल ढूंढते दूजा
नर-नर नाग बने घर-घर में
कौन करे नागों की पूजा ;

घटा देख छिप जाए मयूरी
मोर नपूंसक हो जाता है ।

( 2 अगस्त, 1991 को रचित )

सूखा सावन

सूखा सावन जल को तरसे
रह-रह बरसे मन
पीउ-पीउ नित रटे पपीहा
लोप हो गए घन ।

पावस की मोती सी बूंदें
बन गईं चिन्गारी
हल की मूँठ बैल की घंटी
लगे थकी-हारी

सूरज की प्रतिशोध कहानी
मौन सुने कण-कण ।

बालक मेघा-मेघा कहकर
भू पर लोटें भीजें
मेघा निष्ठुर आएं-जाएं
किंतु न तनिक पसीजें

कृषक घरों में पोंछें आँसू
खेत हुए निर्जन ।

(26 जुलाई, 1991 को रचित)


बाँझ हुए बादल

बाँझ हुए बादल !

साँझ सबेरे
घिर घिर आएं
फिर भी मुए
न जल बरसाएं

करे तू काहे छल !

जेठ की तपन से
धरती है प्यासी
कहने को सावन
है छाई उदासी

रहे न दूर्वा दल !

न खेतों में रौनक
न दिखती किसानी
जन-जन विकल हो
कहे पानी - पानी

ठिठक गए सारे हल !

( 22 जुलाई, 1991 को रचित) 

बरसें मेघ सघन

आए घन
भइ
मंद पवन
पर
झुलस रहा तन-मन
बरसें मेघ सघन ।

घर सूना
दिन-रातें सूनी
प्रिय बिन
सारी बातें सूनी
काटे घन गर्जन ।

दामिनि दे दुख
छूकर अंतर
दादुर धुन भी
मारे मंतर
दुखती
शीत पवन ।

( अगस्त, 1990 में रचित)


रीत गया मधुवन !

रीत गया मधुवन !

भोर पहर ही लरज गई हा
कोमल कुसुम कली,
यौवन का मुख तक ना देखा
लागे उम्र ढली ;

पछुआँ की आँधी में आली
झुलस गया तन-मन ।

अमृत सम रसपूर्ण सरोवर
जल आयात करे,
निज भविष्य पर कमल-कुमुदिनी
तब निःश्वास भरे ;

जाने क्यूं कर मरीचिका पर
फिर फिर जाए मन ।

आओ मिल निर्मूल करें हम
ये छाया काली,
कर दें पुष्पाच्छादित मधुवन
की डाली-डाली ;

तप्त धरनि पर पुनः बहा दें
शीतल मंद पवन ।

( जहां तक मुझे याद आता है। यह मेरा पहला नवगीत है । इसे मैंने 7 जून, 1989 को लिखा था )