Monday, December 22, 2014

नए वर्ष की अगवानी


नये वर्ष तू बता
किस तरह
करूँ तेरी अगवानी !


जाने कैसे
बदल रहा है
मौसम अपना रंग,
खड़ी फसल पर
ओलों ने फिर
किया रंग में भंग ;

बेमौसम
खेतों में छहरा
पानी ही पानी।

देह बुजुर्गों
की सिकुड़ी है
ओढ़े पड़े रजाई,
सूरज की
हड़ताल चल रही
पड़ता नहीं दिखाई;

सर-सर बहती
हवा कर रही
तन से मनमानी।

जेब गरम है
जिनकी, पहुँचे
शिमला और मनाली,
रैन बसेरे
वालों का क्या
जिनकी जेबें खाली ;

शोर जश्न का
दबा रहा है
मजबूरों की वाणी

( 22 दिसंबर, 2014)

Saturday, December 13, 2014

बचपन

बचपन
..........
छीन लिया खुद
हमने अपने
बच्चों का बचपन,
कभी न बूझा
हमने उनका
निर्मल-अनगढ़ मन।

उगता सूरज
कभी न देखा
न देखी गोधूल,
डेढ़ बरस में
प्लेग्रुप पहुँचे
ढाई में स्कूल;

पाँच बरस में
चश्मा धारे
लगते हैं पचपन।

मेहमानों की आमद
पर तो
बन जाते शो पीस,
एक साँस में
मंत्र सुनाने
पड़ते हैं चालीस;

मम्मी-डैडी
चाहें बेटा
दिखला दे हर फ़न।

न्यूटन के
नियमों से लेकर
कोलंबस की खोज,
क्या-क्या पढ़ें
बिचारे,भारी
बस्ते का ही बोझ ;

कंप्यूटर
का गेम चाटता
है दीमक सा तन।

मम्मी- डैडी
सुबह निकलते
और लौटते शाम,
शहरी घर है
दादी-बाबा
का उसमें क्या काम;

ना वह अँगना
ना वह चंदा
ना लोरी की धुन।
- ओमप्रकाश तिवारी


आर्यपुत्र, कुछ कर दिखलाओ

आर्यपुत्र
कुछ कर दिखलाओ।


लड्डू खाते रामलला को
सीता ने भी नहीं वरा था,
ना ही दशरथपुत्र नाम पर
उनका प्रेमसिंधु उमड़ा था;
वरमाला तो तभी पड़ी जब
वर का शौर्य दिखा सीता को,
और धनुष शिव का खंडित हो
जनक सभा के बीच पड़ा था।

धनुष-वनुष तुम क्या तोड़ोगे
वो युग कबके बीत गए,
जा करके सब्जी ले आओ।

सिय ने एक बार बोला प्रभु
सारंग लेकर दौड़ पड़े थे,
बियाबान की तकलीफों से भी
वह बिल्कुल नहीं डरे थे;
मायामृग की चतुर चाल में
भले राम जी छले गए,
अर्द्धांगिनि का मन रखने में
पर वह पीछे नहीं खड़े थे।

मृगछाला का लोभ बुरा
मैं वो तुमसे न माँग रही,
एक अंगूठी ही ले आओ।

सोचो सिय ने किस मुश्किल से
अपना धर्म निभाया होगा,
दुष्ट दशानन के हाथों से
अपना सत्व बचाया होगा;
वीर राम की छवि उर में ले
और सहारा तिनके का,
पटरानी बनने का ऑफर
रावण को ठुकराया होगा।

कनक भवन वह अवध सरीखा
तुम क्या दिलवा पाओगे,
एक फ्लैट ही बुक करवाओ ।

- ओमप्रकाश तिवारी

(7 दिसंबर, 2014)