Monday, January 21, 2013

काहे का वैराग रे

दस प्रपंच में
उलझा है मन
काहे का वैराग रे !

हाथी घोड़े ऊँट सवारी
महँगी-महँगी मोटर गाड़ी
ठाट बाट पेशवा सरीखे
राजा लगते भगवाधारी

सिर्फ गेरुए
वस्त्र पहनना
कहलाता न त्याग रे !

चेले-चापड़ गहमागहमी
परमपूज्य वाली खुशफहमी
गांचा चिलम चढ़ाकर करना
अपने तन से भी बेरहमी

तुझ पे नहीं
सुहाता बिल्कुल
संन्यासी ये दाग  रे !

भस्म-भभूती अनी-अखाड़े
प्रतिद्वंद्वी आपस में सारे
भक्त मंडली क्या सीखेगी
सोचो ठंडे मन से प्यारे

सोई सृष्टि
जगानेवाले
पहले खुद तो जाग रे !

(21 जनवरी, 2013 - पूरी श्रद्धा के साथ कुंभ को समर्पित) 

Saturday, January 19, 2013

राजा नंगा है

राजा जी को 
कौन बताए 
राजा नंगा है ।

आँखों पर मोटी सी पट्टी
मुँह में दही जमा
झूठी जयकारों में उसका
मन भी खूब रमा 

जिस नाले वह
डुबकी मारे 
वो ही गंगा है ।

रुचती हैं राजा के मन को
बस झूठी तारीफें
उसको कोसा करें बला से
आगे की तारीखें

उसके राजकाज में
सच कहना
बस पंगा है 

पीढ़ी दर पीढ़ी उसने है
पाया या दर्जा 
ताका करती है उसका मुँह
पढ़ी-लिखी परजा

वह मुस्काए
मुल्क समझ लो
बिल्कुल चंगा है 

- ओमप्रकाश तिवारी


( 20 जनवरी, 2013 - आदरणीय राहुल गांधी की प्रोन्नति से प्रेरणा पाकर )  

Friday, January 11, 2013

बड़ा आदमी

बेचारा वह
बड़ा आदमी

उठने में सूरज से हारा
फिर भी हैंगओवर का मारा
कई किलोमीटर की जॉगिंग
लेकिन चढ़ा न तन का पारा

पकड़ ट्रेडमिल
खड़ा आदमी

पाले है सत्तर बीमारी
बीपी-शुगर पड़ रहे भारी
हलवा-पूड़ी व षट्व्यंजन
छोड़ खाय उबली तरकारी

जीवन से भी
डरा आदमी

इनकम टैक्स वैट का चक्कर
कस्टम वालों से भी टक्कर
काले को सफेद करने में
रोज चूर हो जाना थक कर

दस पचड़ों में
पड़ा आदमी

बीवी की लंबी फरमाइश
नापसंद बेटी की च्वाइस
जूते पर कब्जा कर बैठे
बेटे से भी जोर-अजमाइश

बस कॉलर का
कड़ा आदमी

(12 जनवरी, 2013)

यूँ ही नहीं राम जा डूबे

यूँ ही नहीं
राम जा डूबे
सरजू जी के घाट !

दिन भर
राजपाट की खिटखिट
जनता के परवाने
मातहतों का
कामचोरापा, फिर
धोबी के ताने

लोग समझते
राजा जी तो
भोग रहे हैं ठाट !

था आसान कहां
त्रेता में भी
तब राज चलाना
शेर और बकरी
को पानी
एक घाट पिलवाना

ऊपर से
भरमाने वाले
कितने चारण-भाट !

हारे-थके
महल में पहुंचे
तो सूना संसार
सीता की
सोने की मूरत
दे सकती न प्यार

ऐसे में
क्षय होना ही था
वह व्यक्तित्व विराट !

(11 जनवरी, 2013)

Sunday, January 6, 2013

मरा नयन का नीर

मरा नयन का नीर
             जिन पर सब
             दारोमदार था
             खुद से ज्यादा
             ऐतबार था
             रक्षा का व्रत
             लिया जिन्होंने
             मेरे आगे
             बार-बार था
खींच रहे वो चीर
             खुद को
             अक्षर ज्ञान नहीं है
             मर्यादा का
             ध्यान नहीं है
             पाँच बरस के बाद
             स्वयं की
             किस्मत का भी
             भान नहीं है
लिखते वो तकदीर
             भूखी है
             आधी आबादी
             उन्नति की
             हो रही मुनादी
             मेहनतकश के
             हाथ कटोरा
             भरे पेटवालों
             की चाँदी
उड़ा रहे वो खीर

( 6 जनवरी, 2012)