दीप कहीं तुम बुझ न जाना !
छेददार माना की द्याली
होती जाए प्रतिपल खाली
थी तो बहुत कपास खेत में
किंतु चुरा ले गए मवाली ;
रात अमावस की घिर आई
तुम तो अपना धर्म निभाना !
हवा चल रही है तूफानी
राह नहीं जानी-पहचानी
साथ-साथ चलने की कसमें
निकलीं सब की सब बेमानी ;
अब तो नियमित क्रिया बन गई
सूरज का असमय ढल जाना !
अब न दीप जलाने वाले
खाने लगे बचाने वाले
धरे हाथ पर हाथ मूक हैं
औरों को समझाने वाले ;
ऐसी विकट घड़ी में दीपक
बाती एक उधार जलाना !
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