Sunday, August 13, 2023

स्वेद की गंगा

हाइवे पर 

बह रही है

स्वेद की गंगा ।

दिख रहे हैं
काफिले दर काफिले
हर ओर,
रात लंबी है बहुत
दिखती न
इसकी भोर ;

राह आधी 
भी हुई ना
भर गई जंघा ।

आज 
मेहनतकश श्रमिक गण
बन गए फुटबॉल,
जा रहे चलते
न कोई
पूछता है हाल ;

हर व्यवस्थादार
अब तो
दिख रहा नंगा।

गिर चुकीं
लाशें कई
कोई चले भूखा,
है सुरक्षित
गाँव अपना
रोटला रूखा ;

पुनः लौटेंगे
रहा यदि
सब भला-चंगा।

- ओमप्रकाश तिवारी
(14 मई, 2020)

(मई का प्रथम सप्ताह बीतते-बीतते महानगरों से श्रमिकों के पलायन की खबरें आने लगी थीं। मुंबई - नासिक हाइवे पैदल चलते श्रमिकों से पट गया था। तब 14 मई को लिखा गया यह नवगीत )


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