हाइवे पर
बह रही है
स्वेद की गंगा ।
दिख रहे हैं
काफिले दर काफिले
हर ओर,
रात लंबी है बहुत
दिखती न
इसकी भोर ;
राह आधी
भी हुई ना
भर गई जंघा ।
आज
मेहनतकश श्रमिक गण
बन गए फुटबॉल,
जा रहे चलते
न कोई
पूछता है हाल ;
हर व्यवस्थादार
अब तो
दिख रहा नंगा।
गिर चुकीं
लाशें कई
कोई चले भूखा,
है सुरक्षित
गाँव अपना
रोटला रूखा ;
पुनः लौटेंगे
रहा यदि
सब भला-चंगा।
- ओमप्रकाश तिवारी
(14 मई, 2020)
(मई का प्रथम सप्ताह बीतते-बीतते महानगरों से श्रमिकों के पलायन की खबरें आने लगी थीं। मुंबई - नासिक हाइवे पैदल चलते श्रमिकों से पट गया था। तब 14 मई को लिखा गया यह नवगीत )
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