तुम्हें मुबारक
राशन-पानी
पका पकाया माल,
तुम क्या जानो
कोठी वालों
मेरे दिल का हाल !
हम अटके हैं
महानगर में
घर में सब परिवार,
मात-पिता का
पूत अकेला
मैं ही जिम्मेदार ;
होगा कौन सहाय
यहाँ पर
यदि आ जाए काल !
नरक सरीखी
इक खोली में
बारह जन का वास,
बाहर निकलो
डंडे खाओ
घर में जिंदा लाश ;
फारिग होना भी
बस्ती में
अब तो हुआ मुहाल !
महुआ चूने लगा
गांव में
आने लगे टिकोर,
भूखे-प्यासे
हम परदेसी
बैठे हैं इस ओर ;
पछुआ में पक
बाट जोहती
है गेहूँ की बाल !
- ओमप्रकाश तिवारी
(14 अप्रैल, 2020)
(14 अप्रैल तक समाज के एक वर्ग द्वारा यह तर्क दिए जाने लगे थे कि महानगरों में अटके श्रमिकों को भरपूर भोजन मुहैया कराया जा रहा है। फिर वे क्यों अपने घर जाने को उतावले हो रहे हैं ! तब श्रमिकों की मनःस्थिति को दर्शाते इस नवगीत की रचना होती है)
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