Wednesday, April 24, 2013

कहां जिंदगी वश में

चौदह रुपए वड़ा पाव के
चाय हो गई दस में,
कहां जिंदगी वश में !

राशनकार्ड कई रंगों के
उलझे ताने-बाने,
बैठ शिखर पर तय होते हैं
गुरबत के पैमाने ;

देश दिखे, जैसा दिखलाएं
आकाओं के चश्मे !

अनुदानों की सूची लंबी
हुआ खजाना खाली,
अर्थव्यवस्था के माहिर भी
बजा रहे हैं थाली ;

सौ दिन में सुख देनेवाली
धूल खा रही कस्में !

संसद में लड़ते-भिड़ते सब
पीछे मिले हुए हैं,
होंठ सभी के जनता के
प्रश्नों पर सिले हुए हैं ;

नारा, वोट, चुनाव आदि सब
लोकतंत्र की रस्में !

(25 अप्रैल, 2013)

1 comment:

  1. Aapki sabhi rachnaye ek se badhker ek hai . Maine sabhi padhi . Aisle hi likhte rahiyega. All the best !

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