चौदह रुपए वड़ा पाव के
चाय हो गई दस में,
कहां जिंदगी वश में !
राशनकार्ड कई रंगों के
उलझे ताने-बाने,
बैठ शिखर पर तय होते हैं
गुरबत के पैमाने ;
देश दिखे, जैसा दिखलाएं
आकाओं के चश्मे !
अनुदानों की सूची लंबी
हुआ खजाना खाली,
अर्थव्यवस्था के माहिर भी
बजा रहे हैं थाली ;
सौ दिन में सुख देनेवाली
धूल खा रही कस्में !
संसद में लड़ते-भिड़ते सब
पीछे मिले हुए हैं,
होंठ सभी के जनता के
प्रश्नों पर सिले हुए हैं ;
नारा, वोट, चुनाव आदि सब
लोकतंत्र की रस्में !
(25 अप्रैल, 2013)
Aapki sabhi rachnaye ek se badhker ek hai . Maine sabhi padhi . Aisle hi likhte rahiyega. All the best !
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