दस प्रपंच में
उलझा है मन
काहे का वैराग रे !
हाथी घोड़े ऊँट सवारी
महँगी-महँगी मोटर गाड़ी
ठाट बाट पेशवा सरीखे
राजा लगते भगवाधारी
सिर्फ गेरुए
वस्त्र पहनना
कहलाता न त्याग रे !
चेले-चापड़ गहमागहमी
परमपूज्य वाली खुशफहमी
गांचा चिलम चढ़ाकर करना
अपने तन से भी बेरहमी
तुझ पे नहीं
सुहाता बिल्कुल
संन्यासी ये दाग रे !
भस्म-भभूती अनी-अखाड़े
प्रतिद्वंद्वी आपस में सारे
भक्त मंडली क्या सीखेगी
सोचो ठंडे मन से प्यारे
सोई सृष्टि
जगानेवाले
पहले खुद तो जाग रे !
(21 जनवरी, 2013 - पूरी श्रद्धा के साथ कुंभ को समर्पित)
No comments:
Post a Comment