खोल देते जब अचानक
शिव जटा से गंग धारा,
धरा बन जाती 'धराली'
है न दिखता कुछ सहारा।
दृश्य यह दिखता है प्रतिदिन
हम प्रकृति की चीर खींचें,
देखकर भी साफ दुर्गति,
हम पड़े हैं आंख मींचे ;
जाएगी किस ओर नदिया
घेर हम बैठे किनारा।
काट कर वृक्षों को हमने ही
किया पर्वत को नंगा,
कब तलक आंचल को फटते
मूक बन देखेगी गंगा ;
शंख यह प्रतिशोध का
फूंका गया कुदरत के द्वारा।
था बुजुर्गों ने सिखाया
प्रकृति की हम करें पूजा,
किंतु हमने आधुनिक बन
चुन लिया है मार्ग दूजा ;
जान लो इस राह पर
चलकर न होना है गुजारा।
- ओमप्रकाश तिवारी
08 अगस्त, 2025
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