ॐ
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हे भगीरथ माफ करना।
जानता हूँ
आप ही गंगा को
धरती पर उतारे,
स्वयं के संग
अनगिनत पुरखों को
हम सबके भी तारे,
किंतु अब तो
आग देने की भी
फुर्सत ना बची है,
कौन गंगा तीर जाकर
अस्थियां
पुरखों की वारे।
इसलिए तो
पड़ रहा अब
स्वयं गंगा को ही मरना।
सच कहूं तो
आज तक वह
तप तुम्हारा याद है,
गूँजती कानों में
शिव से आपकी
फरियाद है,
याद है वह गूँजती
गोमुख से
हर हर हर ध्वनी,
और फिर
सुजलाम होती
यह धरा भी याद है।
किंतु नाले
गिर रहे गंगा में बनकर
आज झरना।
तीर पर
गंगा के दादी माँ
ने जा पियरी चढ़ाई,
लोकगीतों में सुनी
गंगा की
हरदम ही बड़ाई ;
अब न दादी हैं
न है वह लोक
उनका ही रचा,
प्लास्टिक की थैलियां
गंगा पे करतीं
अब चढ़ाई।
भूल बैठा आज तो
इंसान पापों
से भी डरना।
- ओमप्रकाश तिवारी
00:52/ 08 जुलाई 2025
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