Friday, August 8, 2025

धरा बन जाती 'धराली'


खोल देते जब अचानक
शिव जटा से गंग धारा,
धरा बन जाती 'धराली'
है न दिखता कुछ सहारा।

दृश्य यह दिखता है प्रतिदिन
हम प्रकृति की चीर खींचें,
देखकर भी साफ दुर्गति,
हम पड़े हैं आंख मींचे ;

जाएगी किस ओर नदिया
घेर हम बैठे किनारा। 

काट कर वृक्षों को हमने ही
किया पर्वत को नंगा,
कब तलक आंचल को फटते
मूक बन देखेगी गंगा ;

शंख यह प्रतिशोध का
फूंका गया कुदरत के द्वारा।

था बुजुर्गों ने सिखाया
प्रकृति की हम करें पूजा,
किंतु हमने आधुनिक बन
चुन लिया है मार्ग दूजा ;

जान लो इस राह पर
चलकर न होना है गुजारा।

- ओमप्रकाश तिवारी

08 अगस्त, 2025

Tuesday, July 15, 2025

हे भगीरथ माफ करना !

ॐ 
.....
हे भगीरथ माफ करना।

जानता हूँ 
आप ही गंगा को 
धरती पर उतारे,
स्वयं के संग 
अनगिनत पुरखों को
हम सबके भी तारे,
किंतु अब तो
आग देने की भी
फुर्सत ना बची है,
कौन गंगा तीर जाकर
अस्थियां
पुरखों की वारे।

इसलिए तो
पड़ रहा अब
स्वयं गंगा को ही मरना।

सच कहूं तो
आज तक वह 
तप तुम्हारा याद है,
गूँजती कानों में
शिव से आपकी
फरियाद है,
याद है वह गूँजती
गोमुख से
हर हर हर ध्वनी,
और फिर
सुजलाम होती
यह धरा भी याद है।

किंतु नाले 
गिर रहे गंगा में बनकर
आज झरना।

तीर पर 
गंगा के दादी माँ
ने जा पियरी चढ़ाई,
लोकगीतों में सुनी
गंगा की 
हरदम ही बड़ाई ;
अब न दादी हैं
न है वह लोक
उनका ही रचा,
प्लास्टिक की थैलियां
गंगा पे करतीं
अब चढ़ाई।

भूल बैठा आज तो
इंसान पापों
से भी डरना।

- ओमप्रकाश तिवारी
00:52/ 08 जुलाई 2025