Saturday, September 8, 2018

मकड़ी

बुन रही है जाल
कुछ जंजाल
फिर मकड़ी।

रहे लापरवाह हम
था घर पड़ा गंदा,
मिल गया मौका उसे
चालू किया धंधा ;

साफ दिखता
वो बुनाई
कर रही तगड़ी।

छाप कर बैठी दिखे
हर ओर का कोना,
लग रहा अब तो निरर्थक
स्वयं का होना ;
 
है निडर-निर्भीक
सदैव
ही दिखे अकड़ी।

नींद गायब हो गई
भयभीत हूँ हरदम,
है दिवस में भी यहां
महसूस होता तम;

जाल उसका
जान मेरी
लग रही जकड़ी।

- ओमप्रकाश तिवारी

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