बुन रही है जाल
कुछ जंजाल
फिर मकड़ी।
रहे लापरवाह हम
था घर पड़ा गंदा,
मिल गया मौका उसे
चालू किया धंधा ;
साफ दिखता
वो बुनाई
कर रही तगड़ी।
छाप कर बैठी दिखे
हर ओर का कोना,
लग रहा अब तो निरर्थक
स्वयं का होना ;
है निडर-निर्भीक
सदैव
ही दिखे अकड़ी।
नींद गायब हो गई
भयभीत हूँ हरदम,
है दिवस में भी यहां
महसूस होता तम;
जाल उसका
जान मेरी
लग रही जकड़ी।
- ओमप्रकाश तिवारी
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