Sunday, August 26, 2018

परती खेत

अबकी गांव गया तो
फैले देखे
परती खेत।
दूर-दूर तक मंजर दिखता
जैसे चारागाह,
दरवाजे पर बूढ़े दादा
भरते ठंढी आह;
सोच रहे
पुरखों की धरती
हो ना जाए रेत।
बड़का छोड़ जमींदारी
है बन बैठा दरवान,
छुटका धनादेश की मस्ती
में भूला पहचान;
फाल बिना हल
करमन रोए, औ
कुदाल बिन बेंट।
सावन-भादों बीता जाए
कहीं न दिखता धान,
दाने-दाने को तरसेगा
अबकी तो खलिहान;
सोचो-सोचो
दुनिया कैसे
भर पाएगी पेट।
- ओमप्रकाश तिवारी
(23 जुलाई, 2018) 

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