क्या करें
तुम ही कहो,
यूँ कब तलक
लाशें गिनें, निंदा करें, आँसू बहाएं ?
कम नहीं होते
बरस सत्तर,
हमारा घर, सुलगता जा रहा है,
हम पड़े इस आस में
कोई बुझाने को
नदी की धार लेकर आ रहा है;
कुछ कहो
न चुप रहो,
क्यों मौन हैं अब
वो तुम्हारी धधकती संवेदनाएं ?
देश की सीमा नहीं
दिल्ली की सड़कें,
कर सको मंचन जहां नाटक का अपने,
न कटिंग की चाय
न सिगरेट आधी,
न वहाँ एसी में पलते मधुर सपने;
साफ कह दो,
शांति की
उम्मीद पाले,
और कितने दीप हम अपने बुझाएं ?
तुम सियासतदाँ
बदलकर कुर्सियाँ,
पट, कभी चित, जीतते रहते हो बाजी,
सैनिकों के सिर
कलम होते रहें,
स्वयं परचम तान कहलाते हो गाजी;
तुम नहाओ
दूध से,
धन से फलो नित,
पर बताओ, रक्त से हम क्यों नहाएं ?
- ओमप्रकाश तिवारी
(12 जुलाई, 2017)
[अमरनाथ हमले के तीसरे दिन]
तुम ही कहो,
यूँ कब तलक
लाशें गिनें, निंदा करें, आँसू बहाएं ?
कम नहीं होते
बरस सत्तर,
हमारा घर, सुलगता जा रहा है,
हम पड़े इस आस में
कोई बुझाने को
नदी की धार लेकर आ रहा है;
कुछ कहो
न चुप रहो,
क्यों मौन हैं अब
वो तुम्हारी धधकती संवेदनाएं ?
देश की सीमा नहीं
दिल्ली की सड़कें,
कर सको मंचन जहां नाटक का अपने,
न कटिंग की चाय
न सिगरेट आधी,
न वहाँ एसी में पलते मधुर सपने;
साफ कह दो,
शांति की
उम्मीद पाले,
और कितने दीप हम अपने बुझाएं ?
तुम सियासतदाँ
बदलकर कुर्सियाँ,
पट, कभी चित, जीतते रहते हो बाजी,
सैनिकों के सिर
कलम होते रहें,
स्वयं परचम तान कहलाते हो गाजी;
तुम नहाओ
दूध से,
धन से फलो नित,
पर बताओ, रक्त से हम क्यों नहाएं ?
- ओमप्रकाश तिवारी
(12 जुलाई, 2017)
[अमरनाथ हमले के तीसरे दिन]
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