Sunday, April 26, 2015

क्यों न फटे धरा की छाती

क्यों न फटे धरा की छाती,
छलके सागर, गिरें पहाड़ ।
दुःशासन की भाँति
धरा की चीर खींचते
हम न लजाए,
वृक्ष बुजुर्गों ने
जो पोसेे
सारे हमने काट गिराए;
किस करनी पर प्रकृति करेगी
बोलो-बोलो हमसे लाड़ !
भूल गए हम
कृष्ण सखा संग
गोवर्द्धन पूजन की गाथा,
फैशन सा
बन गया रौंदना
रोज-रोज अब सागरमाथा;
मस्त हुआ जाता है मानुष
एवरेस्ट पर झंडे गाड़।
रोका नहीं
यहाँ भी हमने,
अपना विश्वविजय का घोड़ा,
बाँध दिए तटबंध
नदी को
जैसा चाहा, वैसा मोड़ा;
देखो-देखो हमने बीघों
रत्नाकर को दिया पछाड़।
- ओमप्रकाश तिवारी

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