Friday, March 1, 2013

काश कफन में होती जेब

काश
कफन में होती
जेब !

मुश्किल से बनता है पैसा
करना पड़ता ऐसा-वैसा ,
मरता है जमीर घुटघुटकर
लगता लांछन कैसा-कैसा ;

इतनी कठिन
कमाई को भी,
देश समझता है
क्यूँ ऐब !

राजनीति बर्रों का छत्ता
यूँ ही न मिल जाती सत्ता,
जेल-बेल का लंबा चक्कर
उड़ता है गाँधी का पत्ता ;

फिर भी
मेरा काम आपको,
लगता है
सौ टका फरेब !

जो आया है उसको जाना
रह जाना है यहीं खजाना,
लिखवा कर लाया हर मानुष
अपने हिस्से का हर दाना ;

सपनों में
आती है फिर भी,
लाल-हरे
नोटों की खेप !

( एक मार्च, 2013)

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