Thursday, December 22, 2016

यहाँ कहाँ नोटों की थप्पी


दो कमरे का घर है अपना
दो ही रोटी का आहार,
यहाँ कहाँ नोटों की थप्पी
जिसकी खातिर हाहाकार।
खटते रहें तीस दिन बाबू
तो वेतन का मिले जुगाड़,
चर्बी चढ़ना दूर यहाँ तो
सस्ते में पिसता है हाड़ ;
रोएं जिनके घर हरियाली
सूखे यहाँ खेत-फरवार ।
झंख रहे हैं राय बहादुर
जिनका डूब गया संसार,
धनिया-गोबर-होरी जैसों
पर तो रहता चढ़ा उधार ;
रोएं वे जो खून चूसकर
लेते दिखे न कभी डकार।
ऊपर से चलती हैं गंगा
पर गरीब तक पहुँचे बूँद,
सब पानी पी जाने वालों
के घर में अब लगी फफूँद ;
परसेंटेज में बात करें जो
आज उन्हीं को चढ़ा बुखार।
- ओमप्रकाश तिवारी

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